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और मूल प्रति के लिपिकाल में इतना अंतर नहीं पड़ता और न ही स्थानीय धाराओं की इतनी संभावना होती है जितनी समष्टि रचित साहित्य में।।
इस प्रकार रचनाओं के दो भेद हो गए- एक तो वह रचनाएं मिन की मूल प्रतियां थीं, चाहे वह अब उपलब्ध हों या न हों । दूसरी वह रचनाएं जिन की मूल प्रतियां थीं ही नहीं । यह प्रायः स्मरण-शक्ति द्वारा प्रचलित होती रहीं, और समय पाकर लिपिबद्ध हो गई।
मध्यकालीन भारत में लिखित पुस्तकों का बहुत प्रचार था यहां तक कि चीनी यात्री घनसांग यहां से चीन लौटते समय बीस घोड़ों पर पुस्तकें लाद कर अपने साथ ले गया जिन में ६५७ भिन्न भिन्न पुस्तकें थीं' । मध्य भारत का श्रमण पुण्योपायः वि० सं० ७१२ में १५०० से अधिक पुस्तकें लेकर चीन को गया था। पुस्तकें इतनी बड़ी संख्या में मिलती थीं, इस के भी कारण थे । अपनी रचना को वर्षा अग्नि आदि के कारण नष्ट होने से बचाने के लिए और उसे अन्य इच्छुक विद्वानों तक पहुंचाने के लिए रचयिता स्वयं अपनी मून प्रति के आधार पर अनेक प्रतिलिपियां करता या दूसरों से करवाता था । राजशेखर ने काव्यमीमांता' में लिखा है कि कवि अपनी कृति की कई प्रतियां करे या कराए जिस से वह कृति सुरक्षित रह सके और नष्ट भ्रष्ट न होने पाए। - यदि वह रचना शीघ्र प्रसिद्ध हो जाती तो उस की मांग होने लगती और विद्याप्रेमी राजा और विद्वान अपनी अपनी प्रतियां बनाते या बनवाते थे।
१. वी० ए० स्मिथ -अरली हिस्टरी आफ इंडिया (चौथा संस्करण ), पृ० ३६५।
२. लिपिमाला, पृ० १६ ।। ३. (गायकवाड़ सिरीज़, प्रथम सं०) पृ०५३ - .. सिद्धं च प्रबन्धमनेकादर्शगतं कुर्यात् । यदित्थं कथयन्ति
"निक्षेपो विक्रयो दानं देशत्यागोऽल्पजीविता। त्रटिको वह्निरम्भश्च प्रबन्धोच्छेदहेतवः ॥ दारिद्रय व्यसनासक्तिरवज्ञा मन्दभाग्यता ।
दुष्टे द्विष्टे च विश्वासः पञ्च काव्यमहापदः॥", पुनः समापयिष्यामि, पुन: संस्करिष्यामि, सुहृद्भिः सह विवेचयिष्यामीति कर्तुराकुलता राष्ट्रोपसवश्व प्रबन्धविनाशकारणानि ।
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