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है॥ १८८ ॥ जो घर पश्चिमकी शालासे रहित हो उस घरको पक्षघ्न कहते हैं वह पुत्रोंको दोषका दाता और पुरवासियोंकी शत्रुताको देता
॥ १८९ ॥ तीन शालाके गृहोंके ये चार भेद मैंने कहे, इससे घरके कर्ममें बुद्धिमान मनुष्य इनका विचारकर घरको बनवावे ॥ १९० ॥ इसके अनन्तर चार शालाआके घरोंको कहते हैं-जिस घरमें चारों तरफ अलिन्दोंका स्थापन नम्हो और जिसमें चार द्वार हों उस वास्तुको सर्वतोभद्र कहते हैं. एक ग्राममें चार शालाके घरमें, दुर्भिक्षमें, राज्यके उपद्रवमें ॥ १९१ ॥ यदि स्वामी अपनी स्त्रीको संग शुक्रास्नमें लेजाय प्रत्यक्छालाविहीनं तु पक्षघ्नं नाम तद्गृहम् । पुत्राणां दोपदञ्चैव परञ्च पुरवासिनाम् ॥१८९॥ चत्वारोऽमी मया प्रोक्ता भेदाश्चैव चतुर्दश । तस्माद्विचार्य कुर्वीत गृहकर्मणि कोविदः ॥१९०॥ अथ चतुःशालानि।। अलिन्दानां ह्यवच्छेदो नास्ति यत्र समन्ततः॥ तद्वास्तु सर्वतोभद्रं चतुर्दारसमन्वितम् । एकयामे चतुःशाले दुर्भिक्षे राज्यविप्लवे ॥ १९१ ॥ स्वामिना नीयमानायां प्रतिशुक्र न दुष्यति । नृपाणां विबुधानां च गृहं सौख्यप्रदायकम् ॥ १९२ ॥ प्रदक्षिणान्तगैः सर्वैः शालाभित्तिरलिन्दकैः । विना परेण द्वारेण नन्द्यावर्तमिति स्मृतम् ॥ १९३ ॥ श्रेष्ठं सुतारोग्यकरं सर्वेषां शुद्धजन्मनाम् । द्वारालिन्दो गतस्त्वको नेत्रयोदक्षिणागतः ॥ १९४ ॥ विहाय दक्षिणद्वारं वर्द्धमानमिति स्मृतम् । शुभदं सर्ववर्णानां वृद्धिदं पुत्रपौत्रदम् ॥ १९५॥ तो सन्मुख शुक्रका दोष नहीं. राजा और देवताओंका जो घर है वह सुखदायी होता है ।। १९२ ॥ जिसकी प्रदक्षिणाके अन्तमें सब तरफ शाला भीत अलिन्द हों और पश्चिमका द्वार न हो उस घरको नन्द्यावर्त कहते हैं । १९३ ।। वह शुद्ध जन्मवाले श्रेष्ठ पुरुषोंको सुख और आरोग्यका दाता और श्रेष्ठ कहा है. जिसकी दक्षिणदिशामें एक द्वारका अलिन्द नेत्रभागमें हो ॥ १९४ । दक्षिणमें द्वार न हो उस घरको