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दधनको देता है, क्षय सबके क्षयको देता है, आनंद शोकको पैदा करता है, विपुल श्री और यशको देता है ॥ १.६ ॥ विपल नामके सदृश फलको देता है और धनदगृहको विजय कहते हैं ॥ १०७ ॥ प्रदक्षिणक्रमसे सप्त मुखसे लघुस्थानमें रखेहुए अलिंदको जाने. गृहके पूर्व आदि दिशाओंमें रखेहुए अलिन्दोंमें क्रमसे सोलह भेद होते हैं ॥ १०८॥ जिसमें शुभ अलिंद न हो वह गृह कापाल | नामका होता है, विस्तारसे दूना गृह गृह और स्वामी दोनोंको नष्ट करता है।। १०९ ॥ उस गृहको निरर्थक कहते हैं और उसमें राजासे विपुलं नाम सदृशं धनदं विजयाभिधम् ॥ १०७॥ प्रदक्षिणे सप्तमुखादलिन्दं विद्याल्लघुस्थानसमाश्रितं च । गृहस्य पूर्वादिगते प्वलिन्देष्वेवं भवेयुर्दश पट च भेदाः ॥ १०८ ॥ भवेयुर्न शुभालिन्दं गृहं कापालसंज्ञकम् । विस्ताराद्विगुणं गेहं गृहस्वामिवि नाशनम् ॥ १०९॥ निरर्थक तद्गृहं स्याद्भयं वा राजसंभवम् । केचिदलिन्दकं द्वारं प्रवदन्ति मनीषिणः ॥ ११० ॥ केचिद लिन्दं शालां च केचिच्चालिन्दकञ्च तत् । गृहबाह्यस्थिताः काष्टा गृहमत्यन्तनिर्गताः ॥ १११ ॥काष्ठा काष्टस्य यद्गहं तद्वाचा ऽलिन्दसंज्ञकम् । गृहाद्वहिश्च ये काष्टा गृहस्यान्तर्गताश्च ये ॥ ११२ ॥ तेषां कोष्टीकृतं तिर्यग्गेहञ्चालिन्दसंज्ञकम् । स्तम्भहीनं गृहाबाह्यानिर्गतं काष्टनिर्मितम् ।। ११३॥ भय होता है और कोई बुद्धिमान मनुष्य अलिन्दसे रहित द्वारको कहते हैं ॥ ११० कोई आलिंद और शालाको और कोई अलिंदकको
कहते हैं, घरसे बाहिरकी जो दिशा है और जो गृहसे अत्यन्त निकसी हुई ॥ १११ ॥ काष्ठा हैं वे काष्ठका जो घर वह अलिंदसंज्ञक कह | धूलाता है, गृहके बाहिरकी जो दिशा और गृह के भीतर की जो दिशा हैं उनका ॥ ११२ ।। कोष्टरूपसे बनाया जो तिरछा घर उसको अलिंद