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अग्निकोणमें रहता है ॥ ११२ ॥ वृश्चिक आदि मासोंमें ईशानमें, कुम्भ आदि: मासोंमें वायुकोणमें, वृष आदि मासोंमें नैर्ऋतिकोणमें राहुका
का भा. टी. मुख होता है और राहुका पुच्छ शोभन नहीं होता ॥ ११३ ॥ कृत्तिकाआदि सात नक्षत्र पूर्वमें, मघा आदि सात नक्षत्र दक्षिणमें, अनु-18 | राधा आदि सात नक्षत्र पश्चिममें, धनिष्ठा आदि सात नक्षत्र उत्तरमें रहते हैं ॥ ११४ ॥ चन्द्रमा अग्रभागमें होय तो स्वामीको भय होताअ १ धू है, पीठपर चन्द्रमा होय तो कर्मका कर्ता नष्ट होता है, दक्षिणमें होय तो धनको देता है, वामभागमें चन्द्रमा होय तो स्त्री और सुखसंपदा
वृश्चिकादिषु ईशान्यां कुम्भादिषु च वायुदिक । वृषादिषु च नैऋत्ये मुखं पुच्छं न शोभनम् ॥ ११३ ॥ कृत्तिकाद्य सप्त पूर्वे मघाद्य सप्त दक्षिणे । मैत्राद्यं पश्चिमे सप्त धनिष्ठाद्यं तथोत्तरे ॥ ११४ ॥ अग्रे चन्द्रे स्वामिभयं कर्मकर्ता च पृष्ठके । दक्षिणे च धनं दद्युवीमे स्वीसुखसंपदः ॥ ११५ ॥ गृहोपलब्धऋक्षेषु यत्र ऋक्षेषु चन्द्रमाः । शलाकासप्तके देयं कृत्तिकादिक्रमेण च ॥ ११६॥ऋक्ष चन्द्रस्य वास्तोश्च अग्रे पृष्ठे न शस्यते । लग्नादृक्षाद्विचार्योऽसौ चन्द्रः सद्यः फलप्रदः ॥ ११७ ॥ गृहचन्द्र सम्मुखस्थे पृष्ठस्थे न शुभं गृहम् । वामदक्षिणगश्चन्द्रः प्रशस्तो वास्तुकर्मणि ॥ ११८॥ लोहदण्डं च सम्पूज्य भैरवञ्च तथैव
च । तदिक्पालं नमस्कृत्य पृथिवीञ्च तथैव च ॥ ११९॥ 1 ऑको देता है ॥ ११५ ॥ गृहमें मिलेहए नक्षत्रों में जिन नक्षत्रों में चन्द्रमा होय उन सातों नक्षत्रोंमें शलाकासप्तकमें कृत्तिका आदि नक्षत्रोंके
क्रमसे रक्खे ॥ ११६।। चन्द्रमा और वास्तुका नक्षत्र अग्र और पृष्ठभागमें श्रेष्ठ नहीं होता, लग्न और नक्षत्रसे विचाराहुआ यह चन्द्रमा शीघ्र • फलको देता है ११७ ॥ मह का चन्द्रमा पीठका हो वा सन्मुख होय तो शुभ नहीं होता, वाम और दक्षिण भागका चन्द्रमा वास्तुकर्ममें श्रेष्ठ ॥९॥ छ होता है ।। ११८ ॥ लोहदण्ड (फावला) और भैरव इनको भली प्रकार पूजकर और दशों दिक्पाल और भूमिको नमस्कार करिके ॥ ११९ ॥
EEDIOSHANT