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पूर्णाका पूजन करे ॥ ४४ ॥ विधानका ज्ञाता आचार्य उसका पूर्वके समान क्रमसे पूजन करे. चौरासी ८४ पलका ताँबेसे बनाहुआ और दृढ शुभदायी कुंभ ॥ ४५ ॥ जो हाथ भरका हो गर्भ (मध्य) में शुद्ध हो, चार अंगुल जिसका मुख हो छः अंगुल जिसका कण्ठ हो, ढका हुआ हो और भली प्रकार तेजस्वी हो ॥ ४६ ॥ ऐसे घटका मध्यमें स्थापन करके उसके बाह्य देशमें आठ घटोंका स्थापन करे. उन घटोंको भोजन और औषधोंसे पूर्ण करे. उन आठों घटोंको क्रमसे आठों दिशाओं में दिक्पालोंके मन्त्रोंसे स्थापन करे ॥ ४७ ॥ उनको तीर्थके जलोंसे और
पूर्ववत्पूजयेत्तां तु क्रमेणैव विधानवित् । चतूराशिपलं कुम्भं ताम्रोद्भूतं दृढं शुभम् ॥ ४५ ॥ हस्तमात्रं भवेद्द्रर्भशुद्धं स्याच्च तुरङ्गुलम् । कण्ठं रसाङ्गुलं तस्य पिहितं वसुवर्चसम् ॥ ४६ ॥ अष्टौ कुम्भा बहिः स्थाप्याः पूरयेद्भोजनौषधैः । दिक्ष्वष्टसुं क्रमेणैव दिक्पालानां च मन्त्रकैः ॥ ४७ ॥ तीर्थतोयेन संपूर्य तथा पञ्चनदीजलैः । पञ्चरत्नैर्युतं तच्च सफलैर्बीजपूरकैः ॥ ४८ ॥ कुंकुम चन्दनञ्चैव कस्तूरी रोचनां तथा । कपूरं देवदारुञ्च पद्माख्यं सुरभिं तथा ॥ ४९ ॥ अष्टगन्धं तथान्यानि गन्धान्यस्मिन् विनिःक्षिपेत् । वृषशृङ्गोद्भवा सिंहनखोद्भूता तथैव च ॥ ५० ॥ वराहवारणरदे लग्नाश्वाष्ट मृदस्तथा । देवालयद्वारमृदः पञ्चगव्यं समन्त्रितम् ॥ ५१ ॥
पांच नदियोंके जलोंसे भली प्रकार पूर्ण करके वह मध्यका घट पंच रत्न फल और बीजपुर से युक्त हो ॥ ४८ ॥ कुंकुम चन्दन कस्तूरी गोरोचन कपूर देवदारु पद्म और सुरभि (सुगंधि ) अन्य पदार्थ ॥ ४९ ॥ अष्टगंध और अन्यभी गंध के पदार्थ उस घटमें डारे, वृषके शृंगसे उखाड़ी, सिंहके नखोंसे उखाडीहुई मृत्तिका ॥ ५० ॥ वराह और हाथी के दांतों में जो लगी हुई मिट्टी है उससे अन्य जो आठ प्रकारकी मिट्टी और | देवमंदिरके द्वारकी मिट्टीको और मंत्र पढ़े हुए पंचगव्यको ॥ ५१ ॥