________________
॥ ८८ ॥
कि, छः गुना कियेहुए सूत्र से भूमिके तलको शुद्ध करे ॥ ८ ॥ उस सूत्रके भलीप्रकार धारणा करनेके समयमें यदि कोई उस सूत्रका लघुन करे उसकाही अस्थि भूमिके भागमें उस पुरुषके ही प्रमाणको जाने ॥ ९ ॥ जिस दिशा में आसक्त अस्थि दाख उसी दिशा में शल्पको कहे, उसी दिशामें उसके अस्थि सत्तर ७० अंगुलक प्रमाणसे जाने ॥ १० ॥ सूत्र धारणके समयमें जहां आसनपर स्थित हुआ मनुष्य आदि हों कि उसके ही अस्थिको वहां जाने इसका उस क्षितिमें संशय न समझे ॥ ११ ॥ नव कोष्ठ किये हुए भूमिके भाग में पूर्व आदि दिशाओंमें अ क च सुधृते समये तस्मिन् सूत्रं केनापि लंघितम् । तदस्थि तत्र जानीयात्पुरुषस्य प्रमाणतः ॥ ९ ॥ आसको दृश्यते यस्मादिशं शल्यं समादिशत् । तस्यामेव तदस्थीनि सप्तत्यङ्गुलमानतः ॥ १० ॥ सुत्रिते समये यत्र आसनोपरि संस्थितः । तदस्थि तत्र जानीयात्क्षितौ क्षण न संशयः ॥ ११ ॥ नवकोष्टीकृते भूमिभागे प्राच्यादितो लिखेत् । अकचटतपयशान्क माद्वर्णानिमानि च ॥ १२ ॥ प्रारम्भः स्याद्यदि प्राच्यां नरशल्यं तदा भवेत् । सार्द्धहस्तप्रमाणेन तच्च मानुष्यमृत्यवे ॥ १३ ॥ अदिशि च कः प्रश्ने खरशल्यं करद्वयोः । राजदण्डो भवेत्तस्मिन्भयञ्चैव प्रवर्तत ॥ १४ ॥ याम्यां दिशि कृते प्रश्ने नरशल्यमवो भवेत् । तद्गृह स्वामिनो मृत्युं करोत्याकटिसंस्थितम् ॥ १५ ॥
वि. प्र.
ट त प श इन वर्णोंको क्रमसे लिखे ॥ १२ ॥ यदि पूर्व दिशामें प्रारंभ होय तो मनुष्यको दुःख होता है वह भी सार्द्ध हरुन १ || के प्रमाणसे होता है और वह मनुष्यकी मृत्युका हेतु होता है ॥ १३ ॥ अग्निदिशामें प्रश्न होय तो दोनों कर (हाथ) में खर शल्य होता है, उसीमें राज दंड और भय होता है ॥ १४ ॥ दक्षिण दिशामें प्रश्न किया जाय तो नीचेके भागमें नरशल्य होता है, वह घरके स्वामीको मृत्यु ( दुःख ) को
भा. टी.
अ. १२
॥ ८८