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वि. प्र.
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ॐ मध्यमें वास्तुपुरुष और कोटपालका स्थापन करे ॥ २४ ॥ दीर्घ दुर्गमें दीर्घ घरोंको वृत्तमें वृत्तवरोंको और त्रिकोणमें त्रिकोणवरों को बुद्धिमानू मनुष्य बनवावे वा अपनी बुद्धिसे बनवावे ॥ २५ ॥ धनुष धनुषके आकार और गोस्तनके समान दुर्गमें गोहननके आका|रके घर बनवावे और त्रिकोण और छत्रखण्ड में द्वार पाताल (नीचा) से होता है ॥ २६ ॥ प्राकार पर स्थित धनुर्द्वारी जैसे सर्वत्र देखसके उस प्रकारसे भली प्रकार दृढ़ शोभन भित्ति विस्तारसे बनवावे ॥ २७ ॥ इस प्रकार मेरे कहे हुए कोटों को जो बुद्धिमान करता है वह कोटोंपर दीर्घे दीर्घगृहान्कुर्याद्रवृत्ते वृत्तांत्रिकोणके । त्रिकोणाकारयेद्धीमान् स्वबुद्धया वा तथैव च ॥ २५ ॥ धानुषे धनुषाकारां गोस्तने गोस्त नाकृतिम् । त्रिकोणे छत्रखण्डे वा द्वारं पातालतो भवेत् ॥ २६ ॥ प्राकारस्थो धनुर्द्धारी सर्वत्र अवलोकने । तथा भित्तिः प्रकर्तव्या सुद्धा विस्तरा शुभा ॥ २७ ॥ एवं मया विनिर्दिष्टान्कोटान्करोतु बुद्धिमान् । कोटस्थान्वाह्यभागस्थान् यः सर्वानव लोकते ॥२८॥ तादृक्पुराणि सर्वाणि कारयेत्स्थपतिः क्रमात् । अथातः संप्रवक्ष्यामि यदुक्तं ब्रह्मयामले ॥ २९ ॥ यदा कोटस्य नक्षत्रे स्वामिऋक्षे तथैव च । गोचराष्टकभेदेन स्तम्भानां भेदने तथा ॥ ३० ॥ पापाक्रान्ते मध्यकोटे जन्मक्षै ग्रहदूषिते । वज्रा वाग्न्यादिदोंप च तथा भूकम्पदृपिते ॥ ३१ ॥
स्थित होकर बाह्य देशमें स्थित सबको देखता है ॥ २८ ॥ उन संपूर्ण पुरोको स्थपति (राजा) क्रमसे बनवावे इनके अनंतर उसका वर्णन करताहूं जो ब्रह्मयामलमें कहा है ।। २९ ।। जब कोटके नक्षत्र में स्वानीका नक्षत्र हो, गोचराष्ट्रकके भेदले स्तंभोंके छेदन पूर्वोक नक्षत्र एकहो ॥ ३० ॥ मध्य कोटका नक्षत्र पापग्रह करके आक्रांत हो. जन्मका नक्षत्र ग्रहोंसे दूषित हो और वन्त्र (बिजली) अब अम्ने आदिका दोष हो
मा. टी.
अ. ११
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