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और मार्गकंटक और पद्मपत्रके समान और छत्रके आकारकी तुल्य ॥८॥ हे द्विजोंमें श्रेष्ठ ! ये दश प्रकारके दुर्ग मैंने कहे, मुन्मयदुर्गमें खनन । (खोदना )से भीति होती है, जलमें स्थित दुर्गमें मोक्षबंधनसे भय होता है अर्थात् पुलके टूटनेका भय होता है ॥९॥ ग्रामदुर्गमें अग्निके दाहसे और गहरमें प्रवेशका भय होता हे पर्वतमें स्थानके भेदसे और डामरमें भूमिके बलसे भय होता है ॥१॥ वक्रनामके दुर्गमें वियोगसे और विषमदुर्गमें स्थायी राजाओंको भय होता है और बल अबलसे मैं फिर यमपदको कहताहूं ॥११॥ अतिदुर्ग कालवर्ण दशप्रकाराणि मया प्रोक्तानि द्विजपुंगव । मृन्मये खननादीर्ति जलस्थे मोक्षबन्धनात् ॥९॥ग्रामदुर्गेऽग्निदाहाच्च प्रवेशाद्गह्वरस्य च । पर्वते स्थानभेदाच्च डामरे भूबलाद्भयम्॥१०॥वक्राख्ये तु वियोगाच्च विषमे स्थायिनां तथा । बलाबलाद्यमपदं पुनरन्यत् प्रवच्म्यहम् ॥ ११॥अतिदुर्ग कालवर्ण चक्रावतै च डिंबरम् । नालावत च पद्माक्षं पक्षभेदं च सर्वतः॥ १२॥ कारयेत्प्रथम राजा पश्चाद्दुर्ग समाचरेत् । प्राकारे विन्यसेदादौ बाह्यस्थान् पूजयेत्ततः॥१३॥ परिखाश्च ततः कृत्वा तन्मध्ये च ततः पुनः । सव्यापसव्यमार्गेण मार्ग तस्य प्रकल्पयेत् ॥ १४॥ गृहाणि बाह्यसंस्थानि कोणे कोणेषु विन्यसेत् । कोणस्थान् बाह्यतो गेहान् विपमान कारयेत्ततः ॥ १५॥ प्रतोलिं पत्रकालाख्यां परिखाकालरूपिणीम् । यंत्र रमणिकं कुर्याच्छकलीयन्त्रमंडितम् ॥१६॥ चक्रावर्त डिंवर नालावर्त पद्माक्ष और सर्वतः (चारातरफसे ) पक्षभेद इनको ॥ १२ ॥राजा प्रथम करवावे, पीछेसे दुर्ग बनवावे प्रथम प्राकार ( कोट ) बनवावे फिर बाह्यमें जो मनुष्य स्थित रहें उनकी पूजा करे ॥ १३ ॥ उस दुर्गकी परिखाओंको करवाकर उसके मध्यमें वाम और दक्षिण मार्गसे उस दुर्गके मार्गकी कल्पना कर ॥ १४॥ बाहर स्थित जो घर हैं उनको कोण २ में बनवावे और बाह्यदेशमें जो कोणों में स्थित घर हैं उनको विषम अर्थात् गमनके अयोग्य बनवावे फिर ॥ १५ ॥ पत्रकाल है नाम जिसका ऐसी परिखाकी कालरूपिणी