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नक्षत्रों में प्रवेश हो तो अग्निका नाश ( मन्दाग्नि ) कहा है पूर्वके नक्षत्रों में उद्वास होता है दक्षिणके नक्षत्रों में धनका लाभ होता है पश्चिमके नक्ष त्रोंमें जो प्रवेश है वह लक्ष्मीको देता है ॥ ९२ ॥ उत्तरके नक्षत्रों में कलह और गर्भके नक्षत्रों में गर्भका नाश होता है कलशकी गुदा और कण्ठ में स्थिरता कही है ॥ ९३ ॥ स्नान करके शुद्ध, निराहार, भूषणोंसे भूषित, पुत्र और दाराओंसे युक्त, मन्त्री और पुरोहितों सहित यजमान गन्ध (पुष्प नवीन वस्त्र इनको धारण करके ॥ ९४ ॥ पुष्पमालाओंसे युक्त रुचिर और चित्रोंसे चित्रित प्राकारको मालासे लपेटे और शोभित उत्तरे कलहचैव गर्भे गर्भविनाशनम् । स्थिरता च गुदे कण्ठे कलशस्य प्रकीर्तिता ॥ ९३ ॥ स्रातः शुचिर्निराहारोऽलङ्कारेण विभूषितः । पुत्रदारसमायुक्तः सामात्यः सपुरोहितः॥ ९४|| गंधपुष्पं च वस्त्रं च परिधाय पुनर्नवम् । पुष्पमालान्वितं कार्यं रुचिरं चित्रचित्रितम् ॥ प्राकारं वष्टयेत्तत्र मालया परिशोभितम् ॥ ९५ ॥ वस्त्रेणाच्छादित मार्ग कृत्वा राजा सुखासने । निवेश्याये तथा राज्ञीं निवेश्य विजितेन्द्रियः । गीतोत्सवादिभिर्युक्तो गीतवाद्यादिसंयुतः ॥ ९६ ॥ अग्रे सुपूर्णान् कलशान् विप्रान् वेदविशारदान्। गायकान् गणिकांश्चापि सुवासिन्यो विशेषतः ॥ ९७ ॥ व्यस्तैर्यात्रादिशकुनैर्द्वारमार्गेण भूपतिः । वितानैस्तोरणैः पुष्पैः पताकाभि विशेषतः ॥ ९८ ॥ अलंकृत्य नवं गेहूं देहलीं पूजयेत्ततः । दिक्पालांश्च तथा क्षेत्रपालं ग्रामपदेवताः ॥ ९९ ॥
किये ॥ ९५ ॥ मार्गको वस्त्रोंसे आच्छादित करके राजा सुखदायी आसनपर बैठकर रानीको भी पहिले सुखासनपर बैठाकर जितेन्द्रिय राजा गीत, उत्सव आदिसे (बाजोंसे ) युक्त राजा ॥ ९६ ॥ अग्रभागमें जलसे पूर्ण कलश और वेदमें विशारद ब्राह्मणोंको, गायक और विशे षकर सुवासिनी ( सुहागिनियों ) को करके ॥ ९७ ॥ पृथक् २ यात्रा आदिके शकुनोंसे राजा द्वारके मार्ग से वितान तोरण पुष्प पताकाओंसे नवीन घरको ॥९८॥ भूषित करके फिर देहलीका पूजन करे. फिर दिशाओंके स्वामी और क्षेत्रपाल और ग्रामके देवताओंका पूजन करे || ९९ ॥