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वि. प्र.
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वृक्षोंका छेदन न करवावे ॥ ५ ॥ सूर्यके नक्षत्रसे वेद ४ गो २ तर्क ६ दिक १० विश्व १३ नख २० इनकी तुल्य चन्द्रमाक़ा नक्षत्र होय तो दारु काष्ठोंका छेदन शुभदायी होता है ॥ ६ ॥ सब वर्णोंके लिये शुभदायी पूर्वोक्त काष्ठ कहे और देवदारु चन्दन शमी शिंशिपा खदिर ॥ ७ ॥ शाल और शालविस्तृत अर्थात शालके समान जिनका विस्तार हो ये वृक्ष सब जातियों में श्रेष्ठ है. एकजातिके वा दोजातिके जो वृक्ष हैं ॥ ८ ॥ उनको ही सब घरोंमें लगावे. तीन जातियोंसे ऊपर न लगावे अर्थात् तीन प्रकारके काष्ठतक ही घरोंमें लगावै चार पांच जातिके सूर्यर्क्षाद्वेदगोतर्कदिग्विश्वनखसम्मिते । चन्द्रर्क्षे दारुकाष्ठानां छेदनं शुभदायकम् ॥ ६ ॥ सर्वेषामपि वर्णानां दारवः कथिताः शुभाः । सुरदारुचन्दनशमीशिंशिपाः खदिरस्तथा ॥ ७ ॥ शालाः शालविस्तृताश्च प्रशस्ताः सर्वजातिषु । एकजात्या द्विजात्या वा त्रिजात्या वा महीरुहाः ||८|| कारयेत्सर्वगेहेषु तदूर्द्ध नैव कारयेत् । एकदारुमया गेहाः सर्वशल्यनिवारकाः ॥ ९ ॥ द्विजात्या मध्यमाः प्रोक्ता त्रिजात्या अधमाः स्मृताः । क्षीरिणं फलिनं चैव कण्टकाढ्य च वर्जयेत् ॥ १० ॥ श्मशानेनाग्निना चैव दूषिते ऽप्यथवा भुवा । वज्रेण मर्दितं चैव वातभग्नं तथैव च । मार्गवृक्ष पुराच्छन्नं चैत्यं कल्पं च दैवकम् ॥ ११ ॥ अर्द्धनार्द्धदग्धाश्व अर्द्धकास्तथैव च ॥ १२ ॥ व्यङ्गा कुब्जाश्च काणाश्च अतिजीर्णास्तथैव च । त्रिशीर्षा बहुशीर्षाश्च अन्य क्षण भेदिताः ॥ १३॥ नहीं और एक काष्ठके जो घर हैं वे सब दुःखोंके निवारक कहे हैं ॥ ९ ॥ दो जातिके काष्ठ मध्यम और तीन जातिके अधम कहे हैं. दूधवाले और फलके दाता और और कंटक आदि वृक्षोंको वर्ज दे ॥ १० ॥ श्मशान अग्नि और भूमि इनसे दूषित और वज्रसे मर्दित और पवनसे भग्न (टूटा ) मार्गका वृक्ष लताओंसे आच्छन्न (ढका ) चैत्य ( चबूतरा ) का वृक्ष कुलका वृक्ष अर्थात् बडका लगाया हुआ वृक्ष देवताका वृक्ष ॥ ११ ॥ अर्द्धभन अर्द्धदग्ध अर्द्धशुष्क अर्थात जो आधे दृटे जले सुखे हों ॥ १२ ॥ व्यंग (तिरछे ) कुब्ज (कुबडे ) काण अत्यंत जीर्ण और
भा. टी.
अ. ९.
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