________________
वि. प्र. जलाशयोंका करना अत्यन्त श्रेष्ठ होता है ॥ १२ ॥ सिंह वृश्चिक धनुको छोडकर सब लग्नोंमें जलके स्थानको शुभ कहते हैं, श्रेष्ठग्रहों की दृष्टि
सौम्य योगोंसे जल राशियोंके नाश और वर्गमें जलस्थानको बनवावे ॥ १३ ॥ संपूर्ण दिशाओंमें जलके स्थानको बनवावे, नैर्ऋत्य ॥७० ॥ दक्षिण अग्नि और वायव्यदिशाको त्यागदे, पूर्व उत्तर ईशान और पश्चिम दिशाओंमें किया हुआ जलस्थान सुख और सुतका दाता होता
॥१५॥ पूर्व और वरुणकी दिशामें भी पूर्वोक्त फल होता है गृहके मध्यमें स्थित जलस्थानको वर्ज दे, क्रमसे गर्ग वसिष्ठ हैं मुख्य जिनमें सर्वेषु लगेषु शुभं वदन्ति विहाय सिंहालिधनुर्धरांश्च । ग्रहः सदालोकनयोगसौम्ययोगात्प्रकुर्याजलभांशवगें ॥१३॥ सर्वासु दिक्षु सलिलं प्रकुर्याद्विहाय नेत्ययमाग्निवायून् । पूर्वोत्तरेशानजलेशदिक्ष कृतं जलं सौख्यसुतप्रदं च ॥ १४ ॥न पूर्वकं वारुण दिक्स्थितं च विवर्जयेन्मध्यगृहस्थितं च । क्रमेण गर्गादिवसिष्ठमुख्या दिशास्थितानां च जलाशयानाम् ॥ १५ ॥ पुत्रातिरगेश्च भयं विनाशः स्त्रीणां कलिर्वा यथ दौष्टयमेव । नैःस्वं धनं पुत्रविवृद्धिरुक्ता पूर्वादिदिक्षु फलमेतदेव ॥१६॥ व्यासप्रमाणं द्विगुणं
च गुण्यं हारस्य हारोत्तरतोत्तरस्य । मध्येऽष्टहारेष्वपि पिण्डसंज्ञमेकादिहारा विषमाः प्रशस्ताः ॥ १७॥ एकान्तरं सन्धिसमेक्षि | तानां व्याधिविनाशो भयशोकमुग्रम् । आद्यन्तयोर्मध्यवियुक्तमेतत्तदा विनाशं कुरुते सपत्न्याः ॥ १८ ॥
ऐसे ऋषि दिशाओंमें स्थित जलाशयोंका यह फल कहते हैं॥ १५ ॥ पुत्रकी पीडा, अग्नि का भय, विनाश, स्त्रियों का कलह और दुष्टता, धनका कनाश, धन और पुत्रोंकी विशेषकर वृद्धि यह पूर्व आदि दिशाओंमें जलस्थानका फल होता है ॥ १६ ॥ जलस्थानके व्यासका जो प्रमाण उसको द्विगुणित करे और हारके उत्तरोत्तरके जो हार हैं उनके मध्य में आठ हारोंमें पिण्ड संज्ञा होती है उनमें एक आदि विष हार (१, ३, ५, ७) श्रेष्ठ कहे हैं ॥ १७ ॥ एक हारके अनन्तरपर सन्धिके स्थानमें जलस्थान दीखे तो व्याधिविनाश भय महान शोक होता है. और हारके मध्य