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अष्टमी नवमी भी शुभ होती हैं प्रतिपदामें द्वार कभी न करे, कर तो दुःख होताहै, द्वितीयामें द्रव्यकी हानि और पशु पुत्रका नाश होता ई है ॥ ३३ ॥ तृतीया रोगकी दात्री चतुर्थी भंगको करती है, षष्ठी कुलका नाश और दशमी धनका नाश करती है ॥ ३४ ॥ अमावास्या विरोध
धको करतीहे इससे इसमें शाखाका आरोप न करे, केन्द्र और त्रिकोण (नौवां पांचवां ) इनमें शुभग्रह होय और ३।११।६ स्थानोंमें पापग्रह . होय ॥ ३५ ॥ द्यून (सातवें) दशवें ये ग्रह शुद्ध होय तो द्वारकी शाखाका स्थापन शुन वारमें शुभ होताहे और पंचक त्रिपुष्कर योगमें तृतीया रोगदा ज्ञेया चतुर्थी भङ्गकारिणी । कुलक्षय तथा षष्टी दशमी धननाशिनी ॥३४॥ विरोधकृत्वमावास्या नास्यां शाखा वरोपणम् । केन्द्रत्रिकोणेषु शुभैः पापैरुयायारिंगैस्तथा ॥ ३५ ॥ यूनांवरे शुदियुते द्वारशाखावरोपणम् । शुभं स्याच्छुभवारे च पञ्चके न त्रिपुष्करे । आग्नेयधिष्ण्ये सोमे हि न कुर्यात्काष्ठरोपणम् ॥ ३६ ॥ प्रणम्य वास्तुपुरुष दिक्पालं क्षेत्रनायकम् । द्वारशाखारोपणं च कर्तव्यं तदनन्तरम् । शुभं निरीक्ष्य शकुनमन्यथा परिवर्जयेत् ॥ ३७॥ कुड्या भित्त्वा न कुर्वीत द्वार तत्र सुखेप्सुभिः । कृत्तिका भगमैत्रं तु विशाखा च पुनर्वसुः॥३८॥ तिष्यं हस्तं तथाद्री च क्रमात्पूर्वेषु विन्यसेत् । मैत्रं विशाखा पौष्णं च नैर्ऋत्यं यमदेवतम् ॥ ३९ ॥ शुभ नहीं, अग्नि जिसका स्वामी हो ऐसे नक्षत्र (कृत्तिका) में और सोमवारको द्वारशाखाका स्थापन न करे ॥ ३६ ॥ वास्तुपुरुषका दिक्पाल और क्षेत्रके स्वामियोंको प्रणाम करके उसके अनन्तर द्वार शाखाका स्थापन शुभशकुनको देखकर करे अन्यथा वर्जदे ॥ ३७ ॥ और सुखके अभिलाषी मनुष्य कुड्य (भित्ति) को छेदकर द्वारको कदाचित् न बनवावे, कृत्तिका भग (पूर्वाफा० ) अनुराधा विशाखा पुन सु ॥ ३८ ॥ पुष्य हस्त आर्द्रा इन नक्षत्रोंको क्रमसे पूर्वदिशामें रक्खे, अनुराधा विशाखा रेवती भरणी उत्तराषाढा अश्विनी चित्रा ये नक्षत्र