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वि.प्र.
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अब आठवें प्रकारको कहते हैं-धन मेष सिंह इन राशियोंपर जब चन्द्रमा हो तो पूर्व दिशामें द्वार बनवावे, मकर कन्या और वृषका चन्द्रमा होयतो दक्षिणदिशामें द्वार बनवावे.तुला मिथुन कुम्भका चन्द्रमा होय तो पश्चिममुखके द्वारको बनवावे ॥ १६ ॥ कर्क वृश्चिक मीनका होयतो उत्तरमें द्वारको बनवावे, अव नवमप्रकारको कहते हैं-कृत्तिकासे सात नक्षत्र पूर्वमें और मघा आदि सात मक्षत्र दक्षिणमें ॥ १७ ॥ अनुराधा आदि सात नक्षत्र पश्चिममें और धनिष्ठा आदि सात नक्षत्र उत्तरमें जानने, जिस दिशाके नक्षत्रपर चन्द्रमा स्थित हो उस दिशामें अथाष्टमः॥ धनुर्मेपसिंहे यदा रात्रिनाथस्तदा पूर्वभागे न्यसेदारमाद्यम् । मृगेकन्यकागोस्तु द्वारं च याम्ये तुलायुग्मकुंभे तथा पश्चिमायाम् ॥ १६॥ कर्कटे वृश्चिके मीने राशिस्थे चोत्तरे न्यसेत् ॥ अथ नवमः ॥ कृत्तिकाद्यं सप्त पूर्वे मघाद्यं सप्त दक्षिणे । ॥ १७॥ मैत्राद्य पश्चिमे ज्ञेयं धनिष्ठाद्यं सप्त उत्तरे । यदिग्भसंस्थिते चन्द्रे तदिग्द्वारं प्रशस्यते ॥ १८॥ पृष्ठदक्षिणवामस्थे न विदध्यात्कदाचन ॥ अथ दशमः॥प्रागादि विन्यसेद्वान्सव्यमार्गेण वै द्विजाः ॥ १९॥ सिंहे चोत्तरदिग्द्वारं पश्चिमास्यं विवर्ज येत् ॥ अथैकादशः ॥ प्राग्दक्षिणे गजद्वारं वृषे प्राच्यान चान्यदिक् ॥२०॥ पृष्ठद्वारं न कर्तव्यं कोणेष्वेव विशेषतः॥ अथ द्वादशः॥ त्रिषु त्रिषु च मासेषु मार्गशीर्षादिषु क्रमात् ॥२१॥ द्वार बनाना शुभ है ॥ १८॥ पीठ दक्षिण और वामभागके नक्षत्रपर द्वारको कदाचित् न बनवावे. अब दशवें प्रकारको कहते हैं-हे द्विजो ! पूर्व |आदि दिशाओंमें सव्य (वाम) मार्गसे वर्गीको स्थापन करे॥ १९ ॥ सिंहमें उत्तर दिशा और पश्चिम दिशाके द्वारको वर्जदे. अब ग्यारहवें प्रकारको कहते हैं-पूर्व और दक्षिणमें मेषके सूर्यमें वृषमें पूर्व दिशामें द्वारको बनवावे, अन्यदिशामें नहीं ॥ २०॥ स्थानका पीठपर द्वार न करे और
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