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________________ वि. प्र. ॥ ५१ ॥ जगती कहानी है एक भागका वृत्त होता है, वृत्तके भागसे ऊर्ध्वभाग होता है ॥ १११ ॥ तीन भागांसे कण्ठ होता है, कण्ठके तीसरे भागका पद होता है ऊर्ध्वमें जो एक भाग है उसके शेषभागकी पट्टिका होती है ॥ ११२ ॥ जहांतक जगती है वहतिक एक भाग भूमिमें प्रविष्ट होता है. उस जगतीका अर्थात् जलके प्रवाहका निर्गम शेषपट्टिका पर्यंत होता है अर्थात् मकान के पुस्तेतक जगती बनावे. जलके निक्सनके लिये वह प्रमाणसे बनवानी ॥ ११३ ॥ लिंग बाण आदिकोंको सात अंश वा तीन भागसे बनवावे अथवा ५ पांच भाग वा दो भाग जिस प्रकार भागैस्त्रिभिस्तथा कण्ठं पदं कण्ठत्रिभागतः । भागेकमूर्ध्वके यश्च शेषभागेन पट्टिका ॥ ११२ ॥ प्रविष्ट भागमेकं तु जगती याव देव तु । निर्गमस्तु पुनस्तस्या यावद्वै पोषपट्टिका । वारिनिर्गमनार्थस्तु तत्र कार्य प्रमाणतः ॥ ११३ ॥ बाणलिङ्गादिकं कुर्यात् सप्तांश वा विभागतम् ॥ पञ्चाभागं द्विभागं वा यथायोग्यं यथास्थिरम् । सप्तभागकृते लिङ्गे चतुरंशान्निवेदयेत् ॥ ११४ ॥ पीठ मध्यगते गर्ने त्रिभागं चैकभागकम् । पञ्चभागे तु भागांस्त्रीन्द्विभागेऽर्द्ध यथाक्रमम् ॥ ११५ ॥ एवं बाणादिलिङ्गानां प्रवेशः शंक रोदितः । स्थूलं शिरः कृशं मूलमुन्नते तन्मुखं शिरः ॥ ११६ ॥ निम्नपृष्ठमिति ख्यातं बालगेहादिलिङ्गके । अज्ञातमुखपृष्ठानां कन्यास्पृष्टं मुखं शिरः ॥ ११७ ॥ | शिर रहे उस प्रकार यथायोग्य बनवावे सातभागसे बनाये लिंगमें चार अंशोंको बनवावे ॥ ११४ ॥ पीठके मध्य में जो गर्त है उससे तीसरा वा एक भागका और पांच भागके गर्त में तीन भाग और दो भागके गर्तमें आधाभाग क्रमसे रक्खे ।। ११५ ।। इसी प्रकार बाणआदि। लिंगोंका प्रवेश शिवजीने कहा है. शिर स्थूल हो, मूल कृश हो और उन्नत ( ऊंचे) में उसके मुखमें शिर हो ।। ११६ ।। जिसका पृष्ठभाग १ 'टिवाणादिकम्' इति पाठान्तरम् । भा. टी. अ. द ।। ५९ ।।
SR No.034186
Book TitleVishvakarmaprakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages204
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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