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________________ १० कोन कहे हैं ॥ १०३ ॥ इसी प्रमाणसे शुभ है लक्षण जिनका ऐसे शुभ प्रासाद बनाने, यक्ष राक्षस नाग इनका आठ ८ हाथका मन्दिर ५ श्रेष्ठ होता है ॥ १०४॥ तैसेही मेरु आदि सात ज्येष्ठ (उत्तम) लिंगके शुभदायी कहे हैं. जो मध्यमें श्रीवृक्षक आदि आठ ८ कहे हैं॥१०५॥ हंस आदि जो पांच कहे हैं वे सब शुभदायी होते हैं, इसके अनन्तर शक्ति सहित लिंगके लक्षणको कहते हैं। १०६॥ लिंगकी लम्बाई के अंगु, लोंसे बुद्धिमान् मनुष्य लिंगके विस्तारको गिने और लिंगके विस्तारका जितना मानहो उससे तिगुना विस्तार पीठका होता है ॥ १०७ ॥ एवमेव प्रमाणेन कर्तव्याः शुभलक्षणाः । यक्षराक्षसनागानामष्टहस्तः प्रशस्यते ॥१०४॥ तथा मेर्वादयः सप्त ज्येष्ठलिङ्गाः शुभा वहाः । श्रीवृक्षकादयश्चाष्टौ मध्ये यस्य उदाहृताः ॥ १०॥ तथा ईसादयः पञ्च उक्तास्ते शुभदा मताः । अथातः संप्रवक्ष्यामि शक्त्या लिंगस्य लक्षणम्॥१०६॥लिङ्गदैर्ध्यालैलिङ्गं विस्तारं गणयेद् बुधः। लिङ्गविस्तारमानेन त्रिगुणं पीठविस्तरम् ॥१०७॥ गर्भगेहप्रविस्तारं विभाग परिकल्येत् । तेषु भागेषु चैकेन पीठविस्तारमाचरेत् ॥ १०८ ॥ दीर्घ कुर्वन्ति पीठानां विष्णुभागा वसानकम् । मूले मध्ये तथोर्वे च ब्रह्मविष्णुहरांशकम् ॥ १०९ ॥ पीठिकालक्षणं वक्ष्ये यथावदनुपूर्वशः । पीठोछाये यथावच्च भागान् पोडश कारयेत्॥११०॥भूमावेकः प्रविष्टः स्याच्चतुर्भिर्जगती मता । वृत्तो भागस्तथैकः स्यादृत्तादूद्धस्तु भागतः ॥११॥ गर्भगेहका जो विस्तार है उसके तीन भागकी कल्पना करे उन भागोंमें एक भागसे पीठका विस्तार करे ॥ १०८ ॥ विष्णुके भागपर्यन्त पीठोंकी दीर्घताको करे, मूल मध्य उर्व भागमें ब्रह्मा विष्णु और शिव इनके अंशोंको रक्खे ॥ १.९॥ अब क्रम क्रमसे पीठिकाके यथार्थ लक्षणको कहता हूं-पीठकी उंचाईमें यथायोग्य सोलह भागोंको करे ॥११०॥ उनमेंसे १ एक भाग भूमिमें प्रविष्ट होता है. चार भागोंकी
SR No.034186
Book TitleVishvakarmaprakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages204
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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