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हो मण्डितहो चित्रोंसे वर्जितहो वह वलभीच्छन्दक कहाता है ॥ ९० ॥ सिंहके समान जो दीखे वह सिंह और गजके समान जो दीखे वह गज कहाता है. कुम्भके समान जिसका आकारहो वह कुंभ कहाता है उसकी ऊँचाई भूमिके नवम भागकी होती है ॥ ९१ ॥ अंगुली पुटके समान जिसकी स्थितिहो पांच अण्डकोशसे जो भूषित और चारों तरफसे जिसकी सोलह कोन हों उसको सामुद्रिक कहते हैं। ॥ ९२ ॥ जिसके दोनों पार्श्वभागों में चन्द्रशालाके समान मुख हों और ऊंचाहो दो जिसकी भूमिहों जो उतनाही ऊंचा हो और दोही | जिसकी भूमि हों वह पद्मक कहा है ॥ ९३ ॥ जिसकी सोलह अस्र और विचित्र शिखर होती हैं वह मन्दिर शुभदायी होता है. जो चन्द्र सिंहः सिंहगतिज्ञेयो गजो गजसमस्तथा । कुम्भः कुम्भा कृतिस्तद्वद्भूमिकानवकोच्छ्रयः ॥ ९१ ॥ अङ्गुलीपुटसंस्थानपञ्चाण्डक विभू पितः। पोडशास्त्रः समन्तात्तु विज्ञेयः ससमुद्रकः ॥ ९२ ॥ पार्श्वयोश्चन्द्रशालस्य उच्छ्रायो भूमिकाद्वयम् । तथैव पद्मकः प्रोक्त उच्छ्रायो भूमिकाद्वयम् ॥९३॥ पोडशास्रः स विज्ञेयो विचित्रशिखरः शुभः । मृगराजस्तु विख्यात चंद्रशालाविभूषितः ॥ ९४ ॥ प्राग्ग्रीवेण विशालेन भूमिका सपन्नता । अनेकचन्द्रशालस्तु गजप्रासाद उच्यते ॥ ९५ ॥ पर्यङ्कगृहराजो वै गरुडो नामनामतः । सप्तभूम्युच्छ्रय स्तद्वच्चन्द्रशालात्रयान्वितः॥ ९६ ॥ भूमिकास्तु षडशीतिर्बाह्यतः सर्वतो भवेत् । तथान्यो गरुडस्तद्वदुच्छ्रायो दशभूमिकः ॥ ९७ ॥ शालासे विशेषकर भूषित हो वह मृगराजनामसे प्रसिद्ध है ॥ ९४ ॥ जिसकी विशाल पूर्वको प्रीवाहो भूमिके छठेभागकी ऊंचाई हो वह मृगराज कहाता है. अनेक जिसमें चन्द्रशाला हों वह गजप्रासाद कहाता है ॥ ९५ ॥ पय्येक गृहराज वा नामसे जिसे गरुड़ कहते हैं जिसकी सातभूमिके भागकी ऊंचाई हो और जिसमें तीन चन्द्रशाला हों ॥ ९६ ॥ जिसके चारों तरफ बाह्यदेश में छियासी गज वा हाथ भूमिहो वहभी एक प्रकारका गरुडमंदिर कहा है. जिसकी ऊंचाई भूमिके दशभागको होती है ॥ ९७ ॥