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द्रव्यानुभव-रत्नाकर ।]
[२३ अब खेतीके ऊपर पांच समवायोंको उतार कर दिखाते हैं, कि कालतो वह है कि जिस कालमें जो चीज बोई है, और ऋतुमें होती है, जैसे मोठ, बाजरा, मूग, जेठ आषाढ़में बोये जाते हैं, और जौ, गेहूं, चना आदि आसोजकार्तिकमें बोये जाते हैं, इसलिये उनको उन्हीं कालमें बोये जाय तो वे चीजें उगती हैं, कदाचित् जेठ आषाढ़में जौ, गेहूं बोया जायतो ऋतुके बिना यथावत न होय, तैसे ही सर्व वस्तु जिस २ कालमें बोयेसे उगे और यथावत हों उसका वही काल है। अब दूसरा स्वभाव सम्बाय कहते हैं कि जिस जमीन
और जिस बीजमें उगनेका स्वभाव होगा वही वस्तु उगेगी, इसलिये वीजका और जमीनका स्वभाव लेनेसे स्वभाव सम्बाय बनेगा, क्योंकि जो ऊपर भूमि आदिक होय उसमें बीज गिरे तो कदापि न ऊगेगा, और जो बीज यथावत अर्थात् सड़ा व पुराना अथवा घुना हुआ स्वभाव जिनमें ऊगनेका नहीं है उनको खेतमें गेरनेसे कदापि न ऊगेगा, इस रीतिसे जमीन और वीजमें स्वभाव सम्वाय हुआ । अब ३ नियत कहता निमित्त कारण पानी, मेंह आदि या वायुका यथावत . निमित्त जमीन और वीजको मिले तो वो वीज उसमें उगे, इसलिये तीसरा नियत समवाय हुआ। चौथा पूर्वकृत कहते हैं कि पूर्व नाम पेश्तर जमीनको संस्कार किया होगा क्योंकि जब तक पेश्तर जमीनको हलादिसे जोतकर साफ अर्थात् खातादि संस्कार यथावत न करेगा तो उसमें वस्तु यथावत न होगी, इसलिये पूर्वकृत अवश्य होनी चाहिये। दूसरी पूर्वकृत इस रीतिसे भी कोई घटावे तो घट सक्ती है कि, जो खेती आदिक करने वाले जीव अर्थात् किसानने पूर्व जन्ममें अच्छा कर्म उपार्जन किया होगा तभी उसके पुण्यसे अनादि होगा, इस रोतिसे भी कोई घटावे तो घट सक्ता है, परन्तु पहली रीति पूर्वकृतमें यथावत घटती है। अब पांचवा पुरुषाकार सम्वाय कहते हैं कि उद्यम करना अर्थात् मेह आदि न वरसे तो कुआ आदिकका पानी देना, अथवा जब वीज उगता है तो उसके साथमें घासादि ऊगता है उत्तको उखाड़ना, इत्यादि नाना प्रकारका उसमें
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