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द्रव्यानुभव-रत्नाकर।
[७ छोड़कर ७ नयके अन्तर्गत अर्थात् मिली हुई जो द्रव्यार्थिक, पर्यार्थिक । उसको जुदी निकालकर नव नय कहना इस दिगम्बरका प्रपञ्च आत्मार्थी बुद्धिमान पुरुष देखो, इस मायावी जालको उपेखो, शास्त्रोंसे मिलाय कर करो लेखो। कदाचित् यह दिगम्बर द्रव्यार्थिक, पर्यार्थिक इन दोनोंको सातसें अलग निकालकर नव नये कहे तो, हम ऐसा कहते हैं कि अपित? अनापिति २, इन दोनोंको भी अलग करके ग्यारह (११) नय कहना चाहिये। जो दिगम्बर ऐसा कहे कि तत्वार्थ सूत्रमें ऐला कहा है कि “अर्पिति थनापितसिद्धः” इत्यादि, परन्तु अर्पित अनार्पित नय सामान्य विशेष अपेक्षासे कथन है, क्योंकि अनार्पित सामान्य सो संग्रह नयमें मिलता है, और अपित विशेष नय है सो व्यवहार आदिक विशेष नयमें मिलता है, इसलिये इस अर्पित अनार्पित को जुदा क्योंकर कहें। तो हम तुम्हारेको कहते हैं कि हे भोले भाइयों कुछ बुद्धिका विचार करो जिससे तुम्हारा कल्याण हो, क्योंकि देखो जैसे अर्पित, अनार्पितको जुदी नहीं कहते हो तो, द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिकको जुदा क्योंकर कहते हो, क्योंकि जैसे अर्पित, अनापितको सामान्य विशेषमें मिलाया है, तैसे ही द्रव्यार्थिकको तो पहली नयगम आदि नयमें मिलाी और पर्यार्थिकको पिछली नयमें मिलाओ तो सिद्धान्तकी शुद्ध प्रक्रियासे मूल सात (७) नय हो जाय, तुम्हारे सब अकल्याण भी मिट जाय ।
अब तुम्हारेको सात नयके अन्तर्गत यह द्रव्यार्थिक और पर्यार्थिक इन दोनों नयको मिलायकर आचर्योंको शैली अर्थात् प्रक्रिया दिखाते हैं, कि-श्रीजिनभद्गणीक्षमाश्रमण प्रमुख सिद्धान्तवादी आचार्य हैं, सो श्री विशेषावश्यकके महा भाष्यमें निर्धार कर ऐसा कहते हैं कि नयगम १, संग्रह २, व्यवहार ३, ऋजु सूत्र ४,यह चार नय द्रव्यार्थिक नय हैं, और शब्द १, संभिरूढ २, एवंभूत ३, यह तीन पर्यार्थिक नय हैं, सो श्री सिद्धसेन दिवाकर तथा मल्लवादी प्रमुख तर्कवादी आचार्य ऐसा कहते हैं कि प्रथमकी तीन, नयगम १, संग्रह २, व्यवहार ३, लक्षण हैं सो द्रव्य नय है। और ऋजु सूत्र १, शब्द २. संभिरूढ ३ एवंमूत ४ ये चारं
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