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[द्रव्यानुभव-रत्नाकर
के कर्म सम्बन्धसे
६६] ____ अब दूसरा भेद कहते हैं कि-संश्लेषित योग करके का जानना कि जैसे आत्माका शरीर, आत्मा तथा शरीर सम्मान धन सम्बन्धकी तरह कल्पित नहीं, क्योंकि यह शरीर विपरीत करके निरबृत्ते नहीं जाव जोव रहे, इसलिये अनुपचरित और विषय होनेसे असद्धत कहा। .. इस रीतिसे नय तथा उपनय और मूल दो नय सहित दिन प्रक्रियासे वर्णन किया. सो यह वर्णन दिगम्बर देव सेन की नय चक्रमें है। : अब जो इसमें जैनमतसे वीपरीत बातें हैं उसीको दिखाते हैं कि यद्यपि स्थूल विषय बहुत बातोंमें जैन मतसे मिलता है, तथापि सिद्धान्तके विपरोत प्रक्रिया होनेसे ठोक नहीं। क्योंकि जिज्ञासु आत्मार्थी शुद्ध प्ररूपक सद्गुरूके उपदेश बिना जो इनके जालमें फस जाय तो उस जिज्ञासुका निकलना बहुत मुशकिल होय, क्योंकि इस दिगम्बरीने भी अपना नाम जैनीधर रख्खा है, इस लिये पेश्तर तो इसके शास्त्र अनुसार इसको प्रक्रिया कही। - अब इस बोटक मत दिगम्बरीकी जो जिनमतसे बिपरीत प्रक्रिया है सोही दिखाते हैं, जिज्ञासुको भ्रमजालमें न फसनेके वास्ते जिन सूत्रोंको ये मानते हैं उन्हीं की शाक्षि दिखलाते हैं, आत्मार्थियों को शुद्धमागे. बतलाते हैं कि तत्वार्थ सूत्रमें, ७नय कहा है,और मतान्तर की अपेक्षा लेकर ५ नयभी कहा हैं यदि उक्त "सप्तमूलनयाः पंचेत्या देशान्तर” इस रीतिसे तत्वार्थ सूत्रमें कहा है सो सात तो मूल नय हैं, और जो मतान्तर से ५ नय मानता है वो मतान्तरवाला शब्द १, संभिरूढ़ २, एवंभूत ३." इन तीनों नयको एक शब्द नयमें ग्रहण करता हैं, और नयगम भाग ४ नय इनको साथ लेकर ५ नय कहता है। सो एक एक नयके सा भेद होते हैं सोनयसे तो ७०० तथा ५०० भेद होते हैं, इस रीति मत कहे हैं। और ऐसाही श्रोआवश्यक सूत्र में कहा है सोभी दि “इकिको यस यविहो सत्तणय सयाहतिए। सेव अणोविहु, पंचेक्स यानणंतु" इस रीतीसे शास्त्रोंमें कहा है। उस प्रा
गोविहु आए सो. उस प्रक्रिया को.
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