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[ द्रव्यानुभव-रत्नाकर।
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ड्रव्य ही नहीं तब सम्बन्ध किसका होय । इसलिये लोक आकाशका सम्बन्ध कहते हैं कि-धर्म द्रव्य, अधर्म द्रव्य इन दोनोंका आकाश द्रव्यसे अनादि अनन्त सम्बन्ध है, क्योंकि लोक आकाशके एक २ प्रदेशमें धर्म द्रव्यका एक २ प्रदेश; ऐसेही अधर्म द्रव्यका एक २ प्रदेश आपसमें मिला हुआ है, सो किस वक्तमें मिला था और किस वक्तमें ये अलग होगा ऐसा कोई नहीं कह सक्ता; इसलिये अनादि अनन्त है। लोक अकाश क्षेत्र और जीव द्रव्यका अनादि अमन्त सम्बन्ध है; परन्तु जो संसारी जीव कर्म सहित हैं उस जीवका और लोक आकाश क्षेत्र प्रदेशका सादी सान्त सम्बन्ध है । सिद्ध जीव और सिद्ध क्षेत्र आकाश प्रदेशका सादी अनन्त सम्बन्ध है। पुद्गल द्रव्यका आकाशसे अनादि अनन्त सम्बन्ध है, परन्तु आकाश प्रदेश और पुद्गल परमाणुका सादी सान्त सम्बन्ध है; इसरीतिले आकाशका सम्बन्ध कहा ।
अब जिस रीति से आकाशका सर्व द्रव्योंसे सम्बन्ध कहा तिसी रीतिसे धर्म द्रव्य और अधर्म द्रव्यका भी सम्बन्ध जान लेना ।
अब जीव और पुद्गलका सम्बन्ध कहते हैं, अभव्य जीवसे पुद्गलका अनादि अनन्त सम्बन्ध है, क्योंकि अभव्यके पुद्गल रूप कर्म कदापि न छूटेगा इसलिये अनादि अनन्त है । भव्य जीवके कर्म रूप पुद्गलले अनादि सान्त सम्बन्ध है, क्योंकि देखो भव्य जीवके कर्म कब लगा था सो तो कह नहीं सक्त े कि फलाने वक्तमें लगा था, इसलिये कर्मरूप पुद्गलसे अनादि सम्बन्ध है, परन्तु जिस वक्त भव्य जीवको उपादान और निमित्त आदि कारनोंकी यथावत खबर पड़ेगी तब पंच समवाय आदि मिलनेसे कर्मरूप पुद्गलको सान्त कर देगा, इसलिये पुद्गल और भव्य
जीवके अनादि सान्त सम्बन्ध है ।
इसरीतिले नित्य अनित्य, पक्षसे चौभङ्गी दिखाई, उत्पाद व्यय स्याद्वाद सेलीभी बतलाई, आत्मार्थियोंके अर्थ किंचित् सुगमता बताई, निशासुओंके चित्तमें सुगमता मनभाई, अब एक अनेक पक्षले नय
विस्तार सुनों भाई ।
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