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________________ श्रीवीतरागस्तोत्रम् ४९ अर्थ - हे स्वामिन् ! बहुतकाल के परिचयवाले विषयों पर आपका वैराग्य है और जन्मपर्यन्त नहीं देखे हुए ऐसे भी योग में एकरूपता - तन्मयता है । यह आपका चरित्र अलौकिक है । (४) T तथा परे न रज्यन्त, उपकारपरे परे । यथाऽपकारिणी भवानहो ! सर्वमलौकिकम् ॥५॥ अर्थ - [हे वीतराग !] अपकार करने वाले कमठ, गौशालक आदि पर भी आप जिस तरह रागी (खुशी) होते हैं, उसी तरह अन्य देव उपकार करनेवाले सेवक पर भी रागी (खुशी) नहीं होते । अहो ! आपका सर्व चरित्र अलौकिक है । [कर्म का क्षय करने में प्रवर्तित मन कमठ ठीक सहायभूत हुआ है इस तरह विचारकर आप उसके ऊपर खुशी होते हैं ] । (५) हिंसका अप्युपकृता, आश्रिता अप्युपेक्षिताः । इदं चित्रं चरित्रं ते, के वा पर्यनुयुञ्जताम् ? ॥६॥ अर्थ - हे प्रभु! आपने चण्डकौशिक प्रमुख हिंसकों को भी सद्गति प्राप्त कराते हुए उपकार किया है और सर्वानुभूति तथा सुनक्षत्र आदि आश्रितों की भी आपने उपेक्षा की है अर्थात् इस भव सम्बन्धी आपत्ति से उनका रक्षण नहीं किया । ऐसा आश्चर्यकारक आपके चारित्र के विषय में पूछने के लिये भी कौन उत्साह को धारण कर
SR No.034155
Book TitleVitrag Stotram
Original Sutra AuthorHemchandracharya
Author
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages70
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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