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श्री अष्टक प्रकरण
अधिकारिवशाच्छास्त्रे, धर्मसाधनसंस्थितिः । व्याधिप्रतिक्रियातुल्या, विज्ञेया गुणदोषयोः ॥५॥ और दोष को लक्ष्य में रखकर
गुण
अर्थ शास्त्र में द्रव्यस्नान और भावस्नान रूप धर्मसाधन की व्याधि के प्रतिकार जैसी सुंदर व्यवस्था की गई हैं, जिस प्रकार एक ही प्रकार का उपाय एक रोगी को गुण रूप होता हैं और दूसरे रोगी को दोष रूप होता हैं, उसी प्रकार द्रव्यस्नान मलिनारम्भी - पाप-प्रवृत्ति करनेवाले गृहस्थ को ही गुणकारी हैं, साधु के लिए दोषकारी हैं । इससे द्रव्यस्नान के अधिकारी गृहस्थ ही है ।
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ध्यानाम्भसा तु जीवस्य, सदा यच्छुद्धिकारणम् । मलं कर्म समाश्रित्य भावस्नानं तदुच्यते ॥६॥
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अर्थ - जो स्नान ध्यान ( - शुभचित्त की एकाग्रता ) रूपी पानी से सदा के लिए आत्म शुद्धि का कारण बनता हैं वह ज्ञानावरणीय आदि कर्म रूप भावमल को दूर करनेवाला होने से भावस्नान हैं ।
ऋषीणामुत्तमं ह्येतन्निर्दिष्टं परमर्षिभिः । हिंसादोषनिवृत्तानां व्रतशीलविवर्धनम् ॥७॥
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अर्थ - व्रत और शील की वृद्धि करनेवाला यह उत्तम भाव स्नान, हिंसा आदि दोषों से निवृत्त मुनियों के लिए ही होता हैं (अथवा मुनियों के लिए केवल यह भाव स्नान ही