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श्री अष्टक प्रकरण
होता हैं द्रव्य स्नान नहीं) ऐसा सर्वज्ञ भगवंतों ने कहा हैं।
स्नात्वाऽनेन यथायोगं, निःशेषमलवर्जितः । भूयो न लिप्यते तेन, स्नातकः परमार्थतः ॥८॥
अर्थ - अपनी योग्यता के अनुसार द्रव्यस्नान अथवा भावस्नान के द्वारा आत्मशुद्धि करके जीव (परंपरा से अथवा उसी भव में) सकल कर्मों के मल से रहित बनता हैं । इस प्रकार एक बार शुद्ध होने के बाद वह कभी भी कर्म-मल से लिप्त नहीं होता । इससे वह वास्तविक रीति से स्नातस्नान किया हुआ बनता हैं।
(इस श्लोक के द्वारा आत्मशुद्धि के लिए गंगा आदि में (अप्रधान) द्रव्य-स्नान करनेवाले अज्ञान लोगों को अपनी योग्यता के अनुसार द्रव्य स्नान अथवा भावस्नान करने का सूचन किया हैं।)