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अभ्यास के कारण आत्मा उसमें मोहित बनती है । परन्तु इतने में क्रूर हृदय वाले शत्रु, रोग, भय, जरा अथवा मृत्यु आकर अचानक ही उसमें धूल डाल देते हैं ||२०३॥
स्पर्द्धन्ते केऽपि केचिद्दधति हृदि मिथो मत्सरं क्रोधदग्धा, युध्यन्ते केऽप्यरुद्धा धनयुवतिपशुक्षेत्रपद्रादिहेतो: । केचिल्लोभाल्लभन्ते विपदमनुपदं दूरदेशानटन्तः, किं कुर्मः किं वदामो भृशमरतिशतैर्व्याकुलं विश्वमेतत् ॥२०४॥
स्रग्धरावृतम्
अर्थ :- यहाँ कई लोग परस्पर स्पर्द्धा करते हैं कई क्रोध से दग्ध बने एक-दूसरे की ईर्ष्या करते हैं; कई धन, युवती, पशु, क्षेत्र तथा ग्रामादि के लिए निरन्तर लड़ते रहते हैं तथा कई लोभ के वशीभूत होकर दूर देशान्तर में भटकते हुए स्थान-स्थान पर क्लेश पाते हैं । इस प्रकार अनेकविध उद्वेगसंक्लेश से यह सम्पूर्ण विश्व व्याकुल बना हुआ है || २०४ || स्वयं खनन्तः स्वकरेण गर्तां, मध्ये स्वयं तत्र तथा पतन्ति । यथा ततो निष्क्रमणं तु दूरे
ऽधोऽधः प्रपाताद् विरमन्ति नैव ॥ २०५ ॥ उपजातिवृतम् अर्थ :- अपने ही हाथों से गड्ढा खोदकर मोहमूढ़ आत्माएँ उसमें इस प्रकार गिर पड़ती हैं कि उसमें से बाहर निकलना तो दूर रहा, बल्कि अधिकाधिक नीचे गिरती ही जाती हैं ॥ २०५ ॥ शांत-सुधारस
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