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अर्थ :- हे जिह्वा ! सत्कर्म करने वाले पुरुषों के सुचरित्र के उच्चारण करने में प्रसन्न होकर सरल बन । अन्य पुरुषों की कीति-यश के श्रवण करने में रसिक होने से मेरे दोनों कान सुकर्ण बनें । अन्यजनों की प्रौढ़ संपत्ति को देखकर मेरी दोनों
आँखें प्रसन्न बनें इस असार संसार में आपके जन्म का यही मुख्य फल है, ऐसा मैं मानता हूँ ॥१९२॥ प्रमोदमासाद्य गुणैः परेषां, येषां मतिर्मज्जति साम्यसिन्धौ । देदीप्यते तेषु मनःप्रसादो, गुणास्तथैते विशदीभवन्ति॥१९३॥
उपजातिवृतम् अर्थ :- अन्य पुरुषों के सुयोग्य गुणों से प्रमोद पाकर जिनकी बुद्धि समतारूपी समुद्र में मग्न बनी है, उनमें मनःप्रसन्नता उल्लसित बनती है । गुणों की प्रशंसा से वे गुण अपने जीवन में भी विकास पाते हैं ॥१९३॥
॥१४ भावनाष्टकम् ॥ विनय ! विभावय गुणपरितोषं, विनय ! विभावय गुणपरितोषं । निज-सुकृताप्तवरेषु परेषु, परिहर दूरं मत्सरदोषम् । विनय० ॥ १९४ ॥
अर्थ :- हे विनय ! गुणों के द्वारा तू आनन्द/परितोष को धारण कर और अपने सुकृत के बल से जिन्हें श्रेष्ठ वस्तुएँ प्राप्त शांत-सुधारस
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