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सर्वत्र मैत्रीमुपकल्पयात्मन् !, चिन्त्यो जगत्यत्र न कोऽपि शत्रुः । कियद्दिनस्थायिनि जीवितेऽस्मिन्, किं खिद्यते वैरिधिया परस्मिन् ॥ १७४ ॥
अर्थ :- हे आत्मन् ! सर्व जीवों के प्रति मैत्री भाव धारण करो । इस जगत् में किसी को शत्रु न मानो । इस जीवन में कितने दिन रहना है ? अन्य के ऊपर शत्रुबुद्धि करके व्यर्थ ही क्यों खेद पाते हो ? ॥१७४॥ सर्वेऽप्यमी बन्धुतयाऽनुभूताः, सहस्रशोऽस्मिन् भवता भवाब्धौ । जीवास्ततो बन्धव एव सर्वे, न कोऽपि ते शत्रुरिति प्रतीहि ॥ १७५ ॥ उपजाति
अर्थ :- इस संसार रूपी सागर में ये सभी जीव हजारों बार बन्धु रूप से अनुभव किए हुए हैं, अतः ये सभी तुम्हारे बन्धु हैं। कोई भी जीव तुम्हारा शत्रु नहीं है, इस बात का मन में निश्चय करो ॥१७५॥ सर्वे पितृ-भ्रातृ-पितृव्य-मातृ-पुत्राङ्गजास्त्रीभगिनीस्नुषात्वम् । जीवाः प्रपन्ना बहुशस्तदेतत्, कुटुम्बमेवेति परो न कश्चित्। १७६। ____ अर्थ :- (इस संसार में) ये सभी जीव पिता, भ्राता, चाचा, माता, पुत्र, पुत्री, स्त्री, बहन तथा पुत्रवधू के रूप में
शांत-सुधारस
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