________________
१३. मैत्री भावना सद्धर्मध्यानसंधान-हेतवः श्रीजिनेश्वरैः । मैत्रीप्रभृतयः प्रोक्ताश्चतस्रो भावनाः पराः ॥१७१ ॥ अनुष्टुप् ___अर्थ :- सद्धर्म-ध्यान में अच्छी तरह से जुड़ने के लिए श्री जिनेश्वरदेवों ने मैत्री प्रमुख चार श्रेष्ठ भावनाएँ कही हैं ॥१७१॥ मैत्री-प्रमोदकारुण्य-माध्यस्थानि नियोजयेत् । धर्मध्यानमुपस्कर्तुं, तद्धि तस्य रसायनम् ॥ १७२ ॥ अनुष्टुप्
अर्थ :- मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ ये चार भावनाएँ धर्मध्यान को स्थिर करने के लिए सर्वदा सेवन करने योग्य हैं, क्योंकि यह वास्तविक रसायन है ॥१७२।। मैत्री परेषां हितचिन्तनं यत्, भवेत् प्रमोदो गुणपक्षपातः । कारुण्यमार्ताऽङ्गिरुजां जिहीर्षे-त्युपेक्षणं दुष्टधियामुपेक्षा।१७३।
उपजाति अर्थ :- अन्य जीवों का हित-चिन्तन मैत्री भावना है, गुण का पक्ष करना प्रमोद भावना है, दुःखी प्राणियों के दुःख को दूर करने की इच्छा करुणा भावना है और दुष्ट बुद्धि वाले जीवों पर राग-द्वेष रहित होकर रहना माध्यस्थ भावना है ।।१७३॥ शांत-सुधारस