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॥ द्वादश भावनाष्टकम् ॥
बुध्यतां बुध्यतां बोधिरतिदुर्लभा, जलधिजलपतितसुररत्नयुक्त्या । सम्यगाराध्यतां स्वहितमिह साध्यतां, बाध्यतामधरगतिरात्मशक्त्या ॥ बुध्य० ॥ १६३ ॥
अर्थ :- समुद्र में गिर पड़े चिन्तामणि रत्न के दृष्टान्त से बोधि की अत्यन्त दुर्लभता को समझो । बोधिरन की दुर्लभता को समझकर उसका सम्यग् आराधन करो, आत्महित साधो और अपनी आत्म-शक्ति से दुर्गति को रोक दो ॥१६३॥ चक्रिभोज्यादिरिव नरभवो दुर्लभो, भ्राम्यतां घोरसंसारकक्षे । बहुनिगोदादिकायस्थितिव्यायते,
मोहमिथ्यात्वमुखचोरलक्षे ॥ बुध्य० ॥ १६४ ॥
अर्थ :- निगोद आदि की दीर्घकाल स्थिति तथा मोह और मिथ्यात्व आदि लाखों चोरों से व्याप्त इस भयंकर संसार - कक्ष में चक्रवर्त्ती के भोजन के दृष्टान्त से मनुष्य-भव की प्राप्ति होना अत्यन्त दुर्लभ है ॥१६४॥
लब्ध इह नरभवोऽनार्यदेशेषु यः, स भवति प्रत्युतानर्थकारी । जीवहिंसादिपापास्त्रवव्यसनिनां,
माघवत्यादिमार्गानुसारी ॥ बुध्य० ॥ १६५ ॥
अर्थ :- उसके बाद मनुष्य का जन्म भी यदि अनार्य देश में हो जाय तो वह ज्यादा अनर्थकारी बन जाता है, क्योंकि वहाँ शांत-सुधारस
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