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अर्थ :- इस काल में जहाँ स्थान-स्थान पर विविध मत वाले पंथ हैं, कदम-कदम पर कुयुक्ति के अभ्यास से स्वमत को विकसित करने में रसिक अनेक मतवादी हैं, देवता भी सहाय नहीं कर रहे हैं तथा न कोई अतिशय लब्धि-सम्पन्न व्यक्ति नजर आ रहा है, ऐसे समय में वीतराग धर्म में दृढ़ता रखने वाला ही सच्चा पुण्यात्मा है ॥१६०॥ यावद् देहमिदं गदैर्न मृदितं, नो वा जरा जर्जरं, यावत्त्वक्षकदम्बकं स्वविषयज्ञानावगाहक्षमम् । यावच्चायुरभङ्गुरं निजहिते तावबुधैर्यत्यतां, कासारे स्फुटिते जले प्रचलिते पालिः कथं बध्यते ॥१६१॥
शार्दूलविक्रीडितम् अर्थ :- जब तक यह देह रोग-ग्रस्त नहीं हुआ है, जब तक यह देह जरा से जर्जरित नहीं हुआ है, जब तक इन्द्रियाँ स्व-स्व विषय सम्बन्धी ज्ञान को ग्रहण करने में समर्थ हैं तथा जब तक आयुष्य शेष है, तब तक सुज्ञजनों को आत्महित में उद्यम कर लेना चाहिए, फिर सरोवर के टूट जाने के बाद दीवार बाँधने से क्या फायदा है ? ॥१६१॥ विविधोपद्रवं देहमायुश्च क्षणभङ्गम् । कामालम्ब्य धृतिं मूढैः स्वश्रेयसि विलम्ब्यते ॥१६२॥ अनुष्टप् ___अर्थ :- यह देह रोगादि उपद्रवों से भरा हुआ है, आयुष्य क्षणभंगुर है, तो फिर किस वस्तु का आलम्बन लेकर मूढ़ जन अपने आत्म-हित में विलम्ब करते हैं ? ॥१६२॥ शांत-सुधारस
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