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लसदलोकपरिवेष्टितं, गणनातिगमानम् । पञ्चभिरपि धर्मादिभिः, सुघटितसीमानम् ॥ विनय० ॥१४९॥
अर्थ :- यह लोकाकाश अगणित (असंख्य) योजन प्रमाण वाला है और चारों ओर अलोक से घिरा हुआ है। धर्मास्तिकाय आदि पंचास्तिकाय से इसकी मर्यादा नियत बनी हुई है ॥१४९॥ समवघातसमये जिनैः, परिपूरितदेहम् । असुमदणुकविविध-क्रिया-, गुणगौरवगेहम् ॥ विनयः॥१५०॥
अर्थ :- केवली भगवन्त केवली समुद्घात के समय अपने आत्मप्रदेशों से समस्त लोकाकाश को भर देते हैं, यह जीव और पुद्गल की विविध क्रिया के गुण-गौरव का स्थान है॥१५०॥ एकरूपमपि पुद्गलैः, कृतविविधविवर्तम् ।। काञ्चन शैलशिखरोन्नतं, क्वचिदवनतगर्तम् ॥विनयः॥ १५१ ॥ __ अर्थ :- यह लोकाकाश एकस्वरूपी होते हुए भी इसमें पुद्गलों के द्वारा विविधता की हुई है। कहीं स्वर्ण के शिखर वाला उन्नत मेरुपर्वत है तो कहीं अत्यन्त भयंकर गड्ढे भी हैं ॥१५१॥ क्वचन तविषमणिमन्दिरै-रुदितोदितरूपम् । घोरतिमिरनरकादिभिः, क्वचनातिविरूपम् ॥विनयः॥१५२॥
अर्थ :- कुछ स्थल देवताओं के मणिमय मन्दिरों से सुशोभित है तो कुछ स्थल महाअन्धकारमय नरकादि से भी अति भयंकर हैं ॥१५२॥ शांत-सुधारस
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