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रङ्गस्थानं पुद्गलानां नटानां, नानारूपैर्नृत्यतामात्मनां च । कालोद्योगस्व-स्वभावादिभावैः,
कर्मातोद्यैर्नर्तितानां नियत्या ॥१४६॥ अर्थ :- नियति, काल, उद्यम और स्वभाव आदि भावों से तथा कर्मरूपी वाद्य यंत्र की सहायता से अनेक रूपधारी नट की तरह जीव और पुद्गलों की यह रंगभूमि है ॥१४६।। एवं लोको भाव्यमानो विविक्त्या, विज्ञानां स्यान्मानसस्थैर्यहेतुः । स्थैर्यं प्राप्ते मानसे चात्मनीनासुप्राप्यैवाऽऽध्यात्मसौख्य-प्रसूतिः ॥ १४७ ॥ ___ अर्थ :- इस प्रकार विवेक से लोक स्वरूप-का विचार बुद्धिमान् पुरुष के चित्त की स्थिरता में सहायक होता है। इस प्रकार चित्त को स्थिर करने से आत्महित होता है और अध्यात्मसुख सुलभ बनता है ॥१४७॥ विनय ! विभावय शाश्वतं, हदि लोकाकाशम् । सकलचराचरधारणे, परिणमदवकाशम् ॥ विनय० ॥१४८ ॥
अर्थ :- हे विनय ! तू अपने हृदय में शाश्वत लोकाकाश के स्वरूप का विचार कर, जिसमें सकल चराचर पदार्थों को धारण करने का सामर्थ्य है ॥१४८॥
शांत-सुधारस
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