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बन्धुरबन्धुजनस्य दिवानिश - मसहायस्य सहायः । भ्राम्यति भीमे भवगहनेऽङ्गी,
त्वां बान्धवमपहाय ॥ पालय० ॥ १३७ ॥ अर्थ :- यह धर्म बन्धुरहित का बन्धु है और असहाय व्यक्ति के लिए सहायभूत है । आप जैसे बन्धु का त्याग करने | वाले इस भीषण संसार में चारों ओर भटकते हैं ॥१३७॥
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द्रङ्गति गहनं जलति कृशानुः, स्थलति जलधिरचिरेण । तव कृपयाखिलकामितसिद्धि
बहुना किं नु परेण ? ॥ पालय० ॥ १३८ ॥
अर्थ :- (हे जिनधर्म ! आपकी कृपा से) गहन जंगल नगर बन जाते हैं, अग्नि जल बन जाती है और भयंकर सागर भी पृथ्वी में बदल जाता है । आपकी कृपा से सभी मनोरथ पूर्ण हो जाते हैं । अतः अब दूसरों से क्या ? ॥१३८॥ इह यच्छसि सुखमुदितदशाङ्गं, प्रेत्येन्द्रादि-पदानि । क्रमतो ज्ञानादीनि च वितरसि,
निःश्रेयस सुखदानि ॥ पालय० ॥ १३९ ॥ अर्थ :- (हे जिनधर्म !) इस लोक में आप दसों प्रकार से वृद्धिगत सुख प्रदान करते हो । परलोक में इन्द्र आदि के महान् पद प्रदान करते हो और अनुक्रम से मोक्षसुख प्रदान करने वाले ज्ञानादि भी प्रदान करते हो ॥ १३९ ॥
शांत-सुधारस
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