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वाञ्छितमाकर्षति दूरादपि, रिपुमपि व्रजति वयस्यम् । तप इदमाश्रय निर्मलभावा
दागम-परम-रहस्यम् ॥ विभा० ॥११९ ॥ अर्थ :- तप दूर रहे मनोरथों को खींचकर निकट ले आता है। तप से शत्रु भी मित्र में बदल जाता है। हे आत्मन् ! निर्मल भाव से इस तप का आश्रय करो । यही आगम का परम रहस्य है ॥११९॥ अनशनमूनोदरतां वृत्ति- हासं रस-परिहारम् । भज सांलीन्यं कायक्लेशं,
तप इति बाह्यमुदारम् ॥ विभा० ॥१२० ॥ अर्थ :- अनशन, ऊणोदरी, वृत्तिसंक्षेप, रसपरित्याग, संलीनता और कायक्लेश, ये बाह्य तप हैं ॥१२०॥ प्रायश्चित्तं वैयावृत्त्यम्, स्वाध्यायं विनयं च । कायोत्सर्गं शुभध्यानम्,
आभ्यन्तरमिदमं च ॥ विभा० ॥१२१ ॥ अर्थ :- प्रायश्चित्त, वैयावच्च, स्वाध्याय, विनय, कायोत्सर्ग और शुभध्यान, आभ्यंतर तप हैं ॥१२१॥ शमयति तापं गमयति पापं, रमयति मानस-हंसम् । हरति विमोहं दूरारोहं,
तप इति विगताशंसम् ॥ विभा० ॥१२२ ॥ शांत-सुधारस
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