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॥ अष्टम भावनाष्टकम् ॥
शृणु शिवसुख-साधन-सदुपायम्, शृणु शिवसुख-साधन-सदुपायम् । ज्ञानादिक-पावन-रत्नत्रयपरमाराधनमनपायम् ॥शृणुः ॥ १०२ ॥
अर्थ :- शिवसुख की प्राप्ति के साधनभूत सम्यग् उपायों का श्रवण कर । शिवसुख-प्राप्ति के साधनभूत सम्यग् उपायों का श्रवण कर । यह (उपाय) ज्ञान आदि पवित्र रत्नत्रयी की आराधना स्वरूप है, जो अपाय रहित है ॥१०२॥
विषय-विकारमपाकुरु दूरं, क्रोधं मानं सह मायम् । लोभं-रिपुं च विजित्य सहेलं,
भज संयमगुण-मकषायम् ॥ शृणु० ॥१०३ ॥ ___ अर्थ :- क्रोध, मान और माया के साथ विषय के विकारों को दूर कर दो और बात-बात में लोभ शत्रु को जीत कर कषायमुक्त संयम गुण को भजो ॥१०३॥ उपशम-रसमनुशीलय मनसा, रोष-दहन-जलदप्रायम् । कलय विरागं धृत-परभाग,
हदि विनयं नायं नायम् ॥ शृणु० ॥१०४॥ अर्थ :- मन से उपशमरस का अनुशीलन करो, जो प्रायः क्रोधरूपी आग के लिए बादल के समान है । हृदय में शांत-सुधारस
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