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ज्ञानदर्शनचारित्रकेतनां चेतनां विना । सर्वमन्यद् विनिश्चित्य यतस्व स्वहिताप्तये ॥ ६२ ॥ अनुष्टप्
अर्थ :- ज्ञान, दर्शन और चारित्र के चिह्न वाली वस्तुओं को छोड़कर अन्य सभी वस्तुएँ पर हैं, ऐसा निर्णय कर स्वहित की प्राप्ति के लिए प्रयत्न करो ॥६२॥
॥ पंचम भावनाष्टकम् ॥ विनय निभालय निज-भवनं, विनय निभालय निज-भवनं, तनु-धन-सुत-सदन-स्वजनादिषु,
किं निजमिह कुगतेखनम् ? ॥ विनय० ॥ ६३ ॥ अर्थ :- हे विनय ! तू अपने घर की (अच्छी तरह से) देखभाल कर ले । तेरे शरीर, धन, पुत्र, मकान तथा स्वजन आदि में से कोई भी तुझे दुर्गति में जाने से बचाने वाला नहीं है ॥६३॥ येन सहाश्रयसेऽतिविमोहा- दिदमहमित्यविभेदम् । तदपि शरीरं नियतमधीरं,
त्यजति भवन्तं धृतखेदम्॥ विनयः॥ ६४ ॥ अर्थ :- 'यह मैं ही हूँ' इस प्रकार इस शरीर के साथ एकता कर जिसका तूने आश्रय लिया है, वह शरीर तो अत्यन्त अधीर है और कमजोर हो जाने पर वह तुझे छोड़ देता है ॥६४॥
शांत-सुधारस
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