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स्निग्धो येषु निजस्वभावममलं निर्लोठ्य लालप्यसे, तत्सर्वं परकीयमेव भगवन्नात्मन्न किञ्चित्तव ॥ ६० ॥
शार्दूलविक्रीडितम् अर्थ :- जिसके लिए तू निरन्तर प्रयत्न करता है, जिससे तू निरन्तर डरता है, जहाँ निरन्तर खुश होता है, जिनके लिए शोक करता है, जिनको हृदय से चाहता है और जिसे प्राप्त कर तू बारम्बार खुश होता है, अपने निर्मल आत्म-स्वभाव की उपेक्षाकर जिन पदार्थों में स्नेहकर जैसातैसा बोलता है (याद रख) हे भाग्यवान् आत्मा ! वह सब दूसरों का है, उसमें तेरा कुछ भी नहीं है ॥६०॥ दुष्टाः कष्टकदर्थनाः कति न ताः सोढास्त्वया संसृतौ, तिर्यड्नारकयोनिषु प्रतिहतश्छिन्नो विभिन्नो मुहः । सर्वं तत्परकीयदुर्विलसितं विस्मृत्य तेष्वेव हा, रज्यन्मुह्यसि मूढ ! तानुपचरन्नात्मन्न किं लज्जसे ॥ ६१ ॥
शार्दूलविक्रीडितम् अर्थ :- इस संसार में महादुष्ट और कष्टकारी किनकिन कदर्थनाओं को तूने सहन नहीं किया है। तिर्यंच और नरकयोनि में बारम्बार मार खाई है, तुझे छेदा गया है, भेदा गया है, यह सब अन्य वस्तुओं का दुर्विलास ही है । अहो ! खेद है कि उसे भूलकर पुनः अन्य वस्तुओं में राग करता है। हे मूढ आत्मन् ! इस प्रकार की चेष्टा करते हुए तुझे लज्जा भी नहीं आती है ॥६१॥ शांत-सुधारस