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नहीं होता । मुख में रहे हुए कवल को खा रहा है तो उसकी हथेली पर रहे हुए हमारा अन्त कैसे नहीं आएगा? ॥१९॥ नित्यमेकं चिदानन्दमयमात्मनो, रूपमभिरूप्य सुखमनुभवेयम् । प्रशमरसनवसुधापानविनयोत्सवो, भवतु सततं सतामिह भवेऽयम् ॥ मूढ..... ॥ २० ॥
अर्थ :- आत्मा के चिदानन्दमय स्वरुप को जानकर नित्य उस सुख का अनुभव करो । इस भव में प्रशमरस रुपी नवीन अमृत के पानरुप उत्सव सज्जन पुरुषों के लिए हमेशा हाँवे ॥२०॥
शांत-सुधारस