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तान् जनान् वीक्ष्य बत भस्मभूयङ्गतान्,
निर्विशङ्काः स्म इति धिक् प्रमादम् ॥ मूढ..... ॥ १७ ॥
अर्थ :- जिनके साथ हमने क्रीड़ा की, जिनके साथ सेवा-पूजा की और जिनके साथ प्रेम भरी बातें कीं, उन लोगों को भस्मसात् होते देखते हुए भी हम निश्चिन्त होकर खड़े हैं, अहो ! हमारे इस प्रमाद को धिक्कार हो ॥१७॥
असकृदुन्मिष्य निमिषन्ति सिन्धूर्मिव
च्चेतनाचेतनाः सर्वभावाः ।
इन्द्रजालोपमाः स्वजनधनसङ्गमास्तेषु रज्यन्ति मूढस्वभावाः ॥ मूढ..... ॥ १८ ॥
अर्थ :- समुद्र में उठती लहर के समान चेतन और अचेतन पदार्थों के समस्त भाव एक बार उठते हैं और पुनः शान्त हो जाते हैं । स्वजन और धन का संगम तो इन्द्रजाल के समान है, उनमें तो मूढ़ स्वभाव वाले ही राग कर सकते हैं ॥१८॥
कवलयन्नविरतं जङ्गमाजङ्गमम्,
जगदहो नैव तृप्यति कृतान्तः ।
मुखगतान् खादतस्तस्य करतलगतै -
र्न कथमुपलप्स्यतेऽस्माभिरन्तः ॥ मूढ..... ॥ १९ ॥ अर्थ :- त्रस और स्थावर जीवों से भरपूर इस जगत् को निरन्तर ग्रास करते हुए भी आश्चर्य है कि यह यमराज कभी तृप्त
शांत-सुधारस
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