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के बाद ऐसे जीव घोर-तामस-रूप नरक में जाते हैं और जीते रहते हैं तो भी वे अनेक जीवों का संहार करके वैरभाव बढ़ाते हैं ॥४४४॥ अवि इच्छंति य मरणं, न य परपीडं करंति मणसा वि ।
जे सुविहियसुगइपहा, सोयरियसुओ जहा सुलसो ॥४४५॥ ___ शब्दार्थ : कालसौकरिक कसाई के पुत्र सुलस के समान जिन्होंने सुगति का मार्ग (मोक्षमार्ग) भलीभांति जान लिया है, वे दूसरे प्राणियों के कष्टों-संकटों के निवारण के लिए खुद मर जाना पसंद करते हैं, किन्तु मन से भी किसी दूसरे प्राणी को पीड़ा देना नहीं चाहते; शरीर और वचन से तो पीड़ा देने की बात ही दूर रही । सुलस ने जब से तत्त्वज्ञान और सुबोध पाया, तब से दूसरे जीव को तकलीफ नहीं पहुँचायी; वैसे ही तत्त्वज्ञ और मोक्षमार्गवेत्ता पुरुष दूसरों को तकलीफ नहीं देते ॥४४५॥ मोलगकुदंडगादामगणिओ-चूलघंटिआओ य । पिंडेइ अपरितंतो, चउप्पया नत्थि य पसू वि ॥४४६॥
शब्दार्थ : जो व्यक्ति पशुओं को बांधने के लिए खूटा, छोटे-छोटे बछड़ों के बांधने को लिए खीला, पशुओं को बांधने लिए रस्सी, गले में बांधने लायक घंटी आदि पशुओं की सारी शृंगारसामग्री तो इकट्ठी कर लेता है, परंतु अपने घर उपदेशमाला
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