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________________ करावे । यदि वह रुग्ण साधु उस महारोग को सहन न कर सके अथवा सहन करने से उसकी संयम-करणी में बाधा पहुँचती हो तो वह उसकी योग्य चिकित्सा करावे ॥३४६।। निच्चं पवयणसोहाकराण, चरणुज्जयाण साहूणं । संविग्गविहारीणं, सव्वपयत्तेण कायव्वं ॥३४७॥ शब्दार्थ : सदा प्रवचन (जिनशासन) की प्रभावना (शोभा) बढ़ाने वाले, चारित्र पालने में उद्यत और मोक्षाभिलाषा से विहार करने वाले साधु को सभी प्रयत्नों से पूरी ताकत लगाकर सेवाभक्ति करनी चाहिए । क्योंकि साधुओं की सेवा से शीघ्र आत्मकल्याण होता है ॥३४७।। हीणस्स वि सुद्धपरुवगस्स, नाणाहियस्स कायव्वं । जणचित्तग्गहण्त्थं, करिति लिंगावसेसे वि ॥३४८॥ शब्दार्थ : कोई साधु सिद्धांत (शास्त्र) के ज्ञान की विशुद्ध प्ररूपणा करने वाला हो, किन्तु संयममार्ग की क्रिया में शिथिल हो, फिर भी उसकी सेवा करना उचित है। उस समय मन में यों सोचना चाहिए कि और लोगों को धन्य है कि स्वयं गुणवान होने पर भी वे उपकारबुद्धि से निर्गुणी की भी सेवा (वैयावृत्य) करते हैं, इस तरह लोगों के चित्त का समाधान व संतोष करने के लिए भी कोरे वेषधारी की सेवा करे । क्योंकि अन्य भोले लोगों के दिल में ऐसा विचार न उठे कि ये साधु परस्पर जलते हैं, अपने समवेषी की भी सेवा नहीं करते ॥३४८॥ उपदेशमाला १३१
SR No.034148
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmdas Gani
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages216
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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