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में क्यों प्रमाद करता है ? अर्थात् तपस्या की शक्ति न हो तो क्रोधादि पर विजय पाने का यत्न कर ॥३४४।। जायंमि देहसंदेहयमि, जयणाए किंचि सेविज्जा । अह पुण सज्जो य, निरुज्जमो य तो संजमो कत्तो ? ॥३४५॥
शब्दार्थ : किसी साधु के शरीर में महारोगादि कष्ट उत्पन्न होने पर यतना पूर्वक सिद्धांत की आज्ञा को लक्ष्य में रखते हुए अपवाद-मार्ग में वह अशुद्ध-आहारादि सेवन करे । परंतु बाद में जब शरीर निरोगी हो जाय, तब भी यदि वह साधु प्रमादी बनकर अपवाद रूप अशुद्ध आहार-पानी ही लेता रहता है; शुद्ध आहार पानी लाने में उद्यम नहीं करता तो उसे संयम कैसे कहा जा सकता है ? कदापि नहीं । क्योंकि आज्ञा-विरुद्ध आचरण करना संयम नहीं कहलाता ॥३४५॥ मा कुणउ जइ तिगिच्छं, अहियासेऊण जइ तरइ सम्मं । अहियासिंतस्स पुणो, जइ से जोगा न हायंति ॥३४६॥
शब्दार्थ : यदि साधु के शरीर में कोई व्याधि उत्पन्न हुई हो और वह उसे समभावपूर्वक सहन कर सकता हो, और उसे सहन करते हुए प्रतिलेखना आदि संयम क्रियाओं में कोई अड़चन न आती हो, मन-वचन-काया के योगों (प्रवृत्तियों) में कोई क्षीणता, दुर्बलता या रुकावट न आती हो तो साधु उस व्याधि के निवारण (प्रतीकार) के रूप में श्रीसनत्कुमार चक्रवर्ती की तरह औषधोपचार (इलाज) न उपदेशमाला
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