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________________ भवोद्वेगाष्टकम्-22 यस्य गम्भीरमध्यस्या, ज्ञानवजूमयं तलम् । रुद्धा व्यसनशैलौघैः, पन्थानो यत्र दुर्गमाः ॥१॥ भावार्थ : इस संसार रूपी समुद्र का मध्यभाग बड़ा गम्भीर है, अज्ञान रूपी वज्र से बना इसका तल-प्रदेश है । इसमें संकट रूपी पर्वतों के समूह से अविरुद्ध अनेक दुर्गम मार्ग हैं ॥१॥ पातालकलशा यत्र, भृतास्तृष्णामहानिलैः । कषायाश्चित्तसंकल्प, वेलावृद्धि वितन्वते ॥ २ ॥ ___ भावार्थ : जहाँ तृष्णारूप महावायु से भरे पाताल कलश रूप चारों कषाय (क्रोधादि) मन के संकल्परूप तरंगों का विस्तार है ॥२॥ स्मरौर्वाग्निर्व्वलत्यन्तर्यत्र स्नेहेन्धनः सदा । यो घोररोगशोकादि मत्स्यकच्छपसंकुलः ॥ ३ ॥ भावार्थ : जिसके मध्य में हमेशा स्नेहरूप ईंधन से युक्त काम रूप दावानल जलता रहता है । जो भयंकर रोग शोकादि रूप मछलियों/कछुओं से भरा हुआ है ॥३॥ दुर्बुद्धिमत्सरद्रोहै- विधुदुर्वातगर्जितैः ।। यत्र सांयात्रिका लोकाः, पतन्त्युत्पातसंकटे ॥ ४ ॥ ५०
SR No.034146
Book TitleGyansara Ashtak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages80
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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