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________________ आरूढाः प्रशमश्रेणिं, श्रुतकेवलिनोऽपि च । भ्राम्यन्तेऽनन्तसंसारमहो दुष्टेन कर्मणा ॥ ५ ॥ भावार्थ : उपशम श्रेणी चढ़ने वाले तथा श्रुतकेवली भी दुष्ट कर्म वश अनन्त संसार में भटक जाते हैं । इससे बड़ा आश्चर्य क्या ? ॥५॥ अर्वाक् सर्वापि सामग्री, श्रान्तेव परितिष्ठति । विपाकः कर्मणः कार्य, पर्यन्तमनुधावति ॥ ६ ॥ भावार्थ : पास पड़ी अन्य सभी सामग्री (कारण) थके हारे की तरह पड़ी रहती है जबकि कर्म का विपाक कार्य के अन्त तक पीछे दौड़ता रहता है ॥६॥ असावचरमावर्ते, धर्मं हरति पश्यतः । चरमावर्तिसाधोस्तु, छलमन्विष्य हृष्यति ॥ ७ ॥ ___ भावार्थ : यह कर्मविपाक (अंतिम पुद्गल परावर्त को छोड़कर) अन्य पुद्गल परावर्त में देखते-देखते धर्म को हर लेता है और चरम पुद्गल परावर्त में रमण करने वाले साधुजनों के भी छिद्र देखकर प्रसन्न होता है ॥७॥ साम्यं बिभर्ति यः कर्म- विपाकं हृदि चिन्तयन् । स एव स्याच्चिदानन्द, मकरन्दमधुव्रतः ॥ ८ ॥ भावार्थ : हृदय में कर्मविपाक का चिन्तन करता हुआ जो समभाव धारण कर लेता है, वही योगी ज्ञानानन्द रूप पराग को भ्रमरवत् भोग करता है ॥८॥ ४९
SR No.034146
Book TitleGyansara Ashtak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages80
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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