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गुरुत्वं स्वस्य नोदेति, शिक्षासात्म्येन यावता । आत्मतत्त्वप्रकाशेन, तावत् सेव्यो गुरूत्तमः ॥ ५ ॥
भावार्थ : जब तक शिक्षा के सम्यक् परिणाम से आत्म स्वरूप के बोध द्वारा स्वयं का गुरुत्व प्रकट नहीं होता तब तक उत्तम गुरु का सेवन करना चाहिये ॥५॥ ज्ञानाचारादयोऽपीष्टाः शुद्धस्वस्वपदावधि । निर्विकल्पे पुनस्त्यागे, न विकल्पो न वा क्रिया ॥ ६ ॥
भावार्थ : ज्ञानाचार आदि आचारों का पालन भी अपने उस उस शुद्ध पद की प्राप्ति तक ही इष्ट है निर्विकल्प समाधि रूप त्याग की अवस्था में कोई विकल्प भी नहीं है और कोई क्रिया भी नहीं है ॥६॥ योगसंन्यासतस्त्यागी, योगानप्यखिलांस्त्यजेत् । इत्येवं निर्गुणं ब्रह्म, परोक्तमुपपद्यते ॥ ७ ॥
भावार्थ : त्यागी आत्मा अन्त में योग संन्यास से समस्त योगों का भी त्याग करता है, इस प्रकार अन्य दर्शनों में वर्णित निर्गुण ब्रह्म भी घटित हो जाता है ॥७॥ वस्तुतस्तु गुणैः पूर्णमनन्तैर्भासते स्वतः । रूपं त्यक्तात्मनः साधो, निरभ्रस्य विधोरिव ॥ ८ ॥
भावार्थ : जिस प्रकार बादल रहित चन्द्रमा अपने तेज से स्वयं प्रकाशित होता है, उसी प्रकार अनंत गुणों से परिपूर्ण त्यागवंत साधु का स्वरूप स्वयं प्रकाशित होता है ॥८॥
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