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भावार्थ : संयम से विमुख बना हुआ मैं शुद्ध उपयोगरूप अपने पिता का और आत्मरति रूप माता का आश्रय स्वीकार करता हूँ, अतः हे ! माता-पिता मुझे अवश्य छोड़ो ॥१॥ युष्माकं सङ्गमोऽनादिर्बन्धवोऽनियतात्मनाम् । ध्रुवैकरूपान् शीलादि, बन्धूनित्यधुना श्रये ॥ २ ॥
भावार्थ : हे बन्धुओ ! तुम्हारा संबंध प्रवाह से अनादि है और अनिश्चित स्वरूप वाला है अतः अब मैं नित्य एक स्वरूप वाले शील आदि बन्धुओं का आश्रय ग्रहण करता हूँ ॥२॥ कान्ता मे समतैवैका, ज्ञातयो मे समक्रियाः । बाह्यवर्गमिति त्यक्त्वा, धर्मसंन्यासवान् भवेत् ॥ ३ ॥
भावार्थ : एक समता ही मेरी पत्नी है और समान आचरण वाले साधु मेरे ज्ञातिजन है (ऐसा विचार कर) इस प्रकार बाह्य वर्ग का त्यागकर धर्म - संन्यासी होता है ॥३॥ धर्मास्त्याज्याः सुसङ्गोत्थाः, क्षायोपशमिका अपि । प्राप्य चन्दनगन्धाभं, धर्मसन्यासमुत्तमम् ॥ ४ ॥
भावार्थ : चंदन की सुगंध के समान श्रेष्ठ धर्म संन्यास को प्राप्त कर लेने के बाद सत्संग से उत्पन्न क्षायोपशमिक धर्म भी छोड़ने योग्य होते हैं ॥४॥
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