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कालइ आभइ वीजलि झबकइ, विरहणीना हीया द्रवकइ, पपीहा बोलइ वाणिया, धान वेचचा वखार खोलइ, बोलइ मोर दादुर करइ सोर अंधार * घोर पइसइ चोर, कंदर्प करइ जोर, मानिनी स्त्री भर्तार नइ करइ निहोर, चंदसूरिज वादले छाया, पंथि जन आप आपणा घर नइ धाया, राजहंस मानसरोवर भणी चाल्या, लोके वस्तुवाना वखारमइ घाल्या, बगपंकति सोहइ इंद्रधनुष चित्त मोहइ, आम थयो रातउ मेहथयो मातउ, मोटी छांट आवइ लोका नइ मन भावइ, झडी लागी करसणारी भाग्य दसा जागी, मूसल धारद मेह वरसइ पृथिवी ऊर्ण-पूर्ण करिवानाइ तरसइ,* वहइ प्रणाल खलखलइ खाल, चूयइ ओरा भीजइ वस्तुवाना बोरा, टवकइ पटसाल चिंचूयइ बाल नदी आवी पूर कडणिरा रुषभांजी करइ चकचूर वहइ वाला लोक थया काहला, जूना हूंढा पडइ लोक ऊंचा चडइ हालीए खेत्र खड्या वाडिसुं सेढा जड्या मारग भागा जे जिहां ते तिहां रहिवा लागा, प्रगट्या राता ममोला धान थया सुंहगा, मोला नीली हरी डहडही धणा हुया दूधनइ दही नीपना घणा धान सांभरया धर्म नइ ध्यान, गयउ रोर लोककरइ बकोर, गयउ दुकाल अयउ दुंदूमुकाल ।" ईदृशे वर्षाकाले न कोऽपि गन्तुं शक्नोति । ततः श्रीकालिकाचार्यवचसा सर्वेऽपि साखीराजानः ९६ निजनिजपटकुटी विस्तार्य स्थित्वा एवं मासचतुष्टयस्थित्या वर्षाकाले श्रीकालिकाचार्यैः प्रोक्तं-"भो राजानः ! मार्गाः समीचीना जाताः, अथ अग्रे चलन्तु यथा भवतां खेप्सितं सिध्यति ।" तदा ते पोचुः-“हे श्रीगुरो ! कथं प्रस्थितिः भवति ? बहुकालविलम्बनेन । अस्माकं द्रव्यं सर्व निष्ठितं, शंबलं च क्षीणं क्षुधातुराणां अस्माकं सर्व विस्मृतं । तांबो जानइ खाण जां जिमइ जासकघान तां भट्टारक भगवान जांजीमह जासकधान तां गीतनइ गान, जांजीम० तां ताननइ मान जांजी तां वीवाह नइ जान जां जी० तां फोफल नइ पान जां जी० तार धर्मनइ ध्यान जां जी० तां तपनइ उपधान जां जी० तां आदर नइ मान जां जी० तां लगसरवा कान जां जी० तां लग मुहडइ वान जां जी० जां पेठन पडइ रोटीयां तां सबेहि गल्लां खोटीयां । ततः श्रीआचार्यः विचारित-"सत्यमेते वदन्ति, कोऽपि द्रव्योपायः कार्यः यथा संबलं भवति, सैन्यं
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