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विवेक-चूडामणि
आरूढशक्तेरहमो विनाशः
कर्तुं न शक्यः सहसापि पण्डितैः। ये निर्विकल्पाख्यसमाधिनिश्चला
स्तानन्तरानन्तभवा हि वासनाः॥३४३॥ अहंकारकी शक्ति जबतक बढ़ी-चढ़ी रहती है तबतक कोई विद्वान् उसका एकाएकी नाश नहीं कर सकता, क्योंकि जो महापुरुष निर्विकल्पसमाधिमें अविचल-भावसे स्थित हो गये हैं उनके अन्दर भी अनन्त जन्मोंकी वासनाएँ देखी जाती हैं।
अहंबुद्ध्यैव मोहिन्या योजयित्वावृतेर्बलात्। विक्षेपशक्तिः पुरुषं विक्षेपयति तद्गुणैः॥ ३४४॥
मोहित कर देनेवाली अहंबुद्धिके साथ अपनी आवरणशक्तिके द्वारा पुरुषका संयोग कराकर विक्षेपशक्ति उस (अहंबुद्धि)-के गुणोंसे मनुष्यको विक्षिप्त कर देती है। विक्षेपशक्तिविजयो विषमो विधातुं
निःशेषमावरणशक्तिनिवृत्त्यभावे दृग्दृश्ययोः स्फुटपयोजलवद्विभागे
नश्येत्तदावरणमात्मनि च स्वभावात्। नि:संशयेन भवति प्रतिबन्धशून्यो
विक्षेपणं न हि तदा यदि चेन्मृषार्थे । ३४५॥ सम्यग्विवेकः स्फुटबोधजन्यो
विभज्य दृग्दृश्यपदार्थतत्त्वम्। छिनत्ति मायाकृतमोहबन्धं
यस्माद्विमुक्तस्य पुनर्न संसृतिः ॥ ३४६ ॥ आवरणशक्तिकी पूर्ण निवृत्तिके बिना विक्षेप-शक्तिपर विजय प्राप्त करना अत्यन्त कठिन है। दूध और जलके समान द्रष्टा और दृश्यके अलग-अलग होनेका स्पष्ट ज्ञान हो जानेपर आत्मामें छायी हुई वह