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आत्मनिष्ठाका विधान
जो समस्त स्थावर-जंगम पदार्थोंके भीतर और बाहर अपनेको ज्ञानस्वरूपसे उनका आधारभूत देखकर समस्त उपाधियोंको छोड़कर अखण्ड-परिपूर्णरूपसे स्थित रहता है, वही मुक्त है। - सर्वात्मना बन्धविमुक्तिहेतुः
सर्वात्मभावान्न परोऽस्ति कश्चित्। दृश्याग्रहे सत्युपपद्यतेऽसौ
सर्वात्मभावोऽस्य सदात्मनिष्ठया॥३४०॥ संसार-बन्धनसे सर्वथा मुक्त होनेमें सर्वात्म-भाव (सबको आत्मारूप देखनेके भाव)-से बढ़कर और कोई हेतु नहीं है। निरन्तर आत्मनिष्ठामें स्थित रहनेसे दृश्यका अग्रहण (बाध) होनेपर इस सर्वात्मभावकी प्राप्ति होती है।
दृश्यस्याग्रहणं कथं नु घटते देहात्मना तिष्ठतो बाह्यार्थानुभवप्रसक्तमनसस्तत्तक्रियां कुर्वतः। संन्यस्ताखिलधर्मकर्मविषयैर्नित्यात्मनिष्ठापरैस्तत्त्वज्ञैः करणीयमात्मनि सदानन्देच्छुभिर्यलतः॥ ३४१॥
जो लोग देहात्म-बुद्धिसे स्थित रहकर बाह्य पदार्थों की मनमें आसक्ति रखकर उन्हींके लिये निरन्तर काममें लगे रहते हैं उनको दृश्यकी अप्रतीति कैसे हो सकती है? इसलिये नित्यानन्दके इच्छुक तत्त्वज्ञानीको चाहिये कि वह समस्त धर्म, कर्म एवं विषयोंको त्यागकर निरन्तर आत्मनिष्ठामें तत्पर हो अपने आत्मामें प्रतीत होनेवाले इस दृश्य-प्रपंचका प्रयत्नपूर्वक बाध करे। सार्वात्म्यसिद्धये भिक्षोः कृतश्रवणकर्मणः। समाधिं विदधात्येषा शान्तो दान्त इति श्रुतिः ॥३४२॥
'शान्तो दान्त उपरतस्तितिक्षुः' (बृह० ४।४। २३) यह श्रुति यतिके लिये वेदान्त-श्रवणके अनन्तर सार्वात्म्यभावकी सिद्धिके लिये समाधिका विधान करती है।