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विवेक-चूडामणि
विषयाभिमुखं दष्ट्वा विद्वांसमपि विस्मृतिः । विक्षेपयति धीदोषैर्योषा जारमिव प्रियम् ॥ ३२४ ॥
जिस प्रकार कुलटा स्त्री अपने प्रेमी जार- पुरुषको उसकी बुद्धि बिगाड़कर पागल बना देती है उसी प्रकार विद्वान् पुरुषको भी विषयों में प्रवृत्त होता देखकर आत्मविस्मृति बुद्धिदोषोंसे विक्षिप्त कर देती है।
यथापकृष्टं शैवालं क्षणमात्रं न तिष्ठति । आवृणोति तथा माया प्राज्ञं वापि पराङ्मुखम् ॥ ३२५ ॥
जिस प्रकार शैवालको जलपरसे एक बार हटा देनेपर वह क्षणभर भी अलग नहीं रहता, [ तुरन्त ही फिर उसको ढँक लेता है ] उसी प्रकार आत्म- विचार - हीन विद्वान्को भी माया फिर घेर लेती है।
लक्ष्यच्युतं
सद्यदि
चित्तमीषद् सन्निपतेत्ततस्ततः ।
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बहिर्मुखं
प्रमादतः
प्रच्युतकेलिकन्दुकः
सोपानपङ्क्तौ पतितो यथा तथा ॥ ३२६ ॥
जैसे असावधानतावश (हाथसे छूटकर ) सीढ़ियोंपर गिरी हुई खेलकी गेंद एक सीढ़ीसे दूसरी सीढ़ीपर गिरती हुई नीचे चली जाती है वैसे ही यदि चित्त अपने लक्ष्य (ब्रह्म) से हटकर थोड़ा-सा भी बहिर्मुख हो जाता है तो फिर बराबर नीचेहीकी ओर गिरता जाता है।
विषयेष्वाविशच्चेतः संकल्पयति तद्गुणान् । सम्यक्संकल्पनात्कामः कामात्पुंसः प्रवर्तनम् ॥ ३२७ ॥
विषयोंमें लगा हुआ चित्त उनके गुणोंका चिन्तन करता है, फिर निरन्तर चिन्तन करनेसे उनकी कामना जागृत होती है और कामनासे पुरुषकी विषयोंमें प्रवृत्ति हो जाती है।
ततः स्वरूपविभ्रंशो विभ्रष्टस्तु पतितस्य विना नाशं पुनर्नारोह सङ्कल्पं वर्जयेत्तस्मात्सर्वानर्थस्य कारणम् ॥ ३२८ ॥
पतत्यधः ।
ईक्ष्यते ।