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देहोऽहमित्येव जडस्य
बुद्धिदेहे च जीवे विदुषस्त्वहंधीः । महात्मनो
ब्रह्माहमित्येव मतिः
जड पुरुषोंकी 'मैं देह हूँ' - ऐसी देहमें (शास्त्रज्ञ) - की जीवमें और विवेक विज्ञानयुक्त ऐसी सत्य आत्मामें ही अहंबुद्धि होती है। अत्रात्मबुद्धिं त्यज मूढबुद्धे त्वङ्मांसमेदोऽस्थिपुरीषराशौ ब्रह्मणि निर्विकल्पे
सर्वात्मनि
विवेकविज्ञानवतो
विवेक-चूडामणि
सदात्मनि ॥ १६२ ॥
अहंबुद्धि होती है, विद्वान्
महात्माकी 'मैं ब्रह्म हूँ'
कुरुष्व शान्तिं परमां भजस्व ॥ १६३ ॥
अरे मूर्ख ! इस त्वचा, मांस, मेद, अस्थि और मलादिके समूहमें आत्मबुद्धि छोड़ और सर्वात्मा निर्विकल्प ब्रह्ममें ही आत्मभाव करके परम
शान्तिका भोग कर । देहेन्द्रियादावसति
भ्रमोदितां
विद्वानहन्तां न जहाति यावत् ।
तावन्न तस्यास्ति विमुक्तिवार्ता
प्यस्त्वेष वेदान्तनयान्तदर्शी ॥ १६४ ॥
जबतक विद्वान् असत् देह और इन्द्रिय आदिमें भ्रमसे उत्पन्न हुई अहंताको नहीं त्यागता, तबतक वह वेदान्त-सिद्धान्तोंका पारदर्शी क्यों न हो, उसके मोक्षकी कोई बात ही नहीं है।
छायांशरीरे
प्रतिविम्बगात्रे
यत्स्वप्नदेहे हृदि कल्पितांगे ।
यथात्मबुद्धिस्तव नास्ति काचि
जीवच्छरीरे च तथैव मास्तु ॥ १६५ ॥
छाया, प्रतिविम्ब, स्वप्न और मनमें कल्पित किये हुए शरीरोंमें जिस